सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मर्यादा की वेदी ११३ प्रभा को यह शब्द शर-सा लगा। वह तिलमिलाकर चोली-उस समय इसी छुरी के एक वार से खून की नदी बहने लगती। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे कारण मेरे भाई-बन्धुओं की जान जाय । इसके सिवाय मैं कुँवारी थी। मुझे अपनी मर्यादा के भंग होने का कोई भय न था। मैंने पातिव्रत नहीं लिया । कम- से-कम ससार मुझे ऐसा समझता था। मैं अपनी दृष्टि में अब भी वही हूँ; किन्तु संसार की दृष्टि में कुछ और हो गई हूँ। लोक-लाज ने मुझे राणा की श्राज्ञाकारिणी बना दिया है। पतिव्रता की वेड़ी ज़बरदस्ती मेरे पैरों में डाल दी गयी है । अब इसकी रक्षा करना मेरा धर्म है । इसके विपरीत और कुछ करना क्षत्राणियों के नाम को कलकित करना है। तुम मेरे घाव पर व्यर्थ नमक क्यों छिड़कते हो ? यह कौन सी भलमनसी है ? मेरे भाग्य में जो कुछ वदा है, वह भोग रही हूँ। मुझे भोगने दो और तुमसे विनती करती हूँ कि शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ। राजकुमार एक पग और बढ़कर दुष्ट-भाव से बोला-प्रभा, यहाँ आकर तुम त्रियाचरित्र में निपुण हो गयीं। तुम मेरे साथ विश्वासघात करके अब धर्म की बाड़ ले रही हो। तुमने मेरे प्रणय को पैरों तले कुचल दिया और अब मर्यादा का बहाना हूँढ़ रही हो। मैं इन नेत्रों से राणा को तुम्हारे सौदर्य-पुष्प का भ्रमर बनते नहीं देख सकता । मेरी कामनायें मिट्टी में मिलती है तो तुम्हें लेकर जायँगी । मेरा जीवन नष्ट होता है तो उसके पहले तुम्हारे जीवन का भी अन्त होगा। तुम्हारी वेवफाई का यही दण्ड है । बोलो, क्या निश्चय करती हो ! इस समय मेरे साथ चलती हो या नही १ किले के बाहर मेरे आदमी खडे हैं। प्रभा ने निर्भयता से कहा-नहीं। राजकुमार-सोच लो, नहीं तो पछतानोगी । प्रभा-खूब सोच लिया है। राजकुमार ने तलवार खींच ली और वह प्रभा की तरफ लपके। प्रमा भय से आँखें बन्द किये एक कदम पीछे हट गयी। मालूम होता था, उसे मूर्चा आ जापनी। अफल्मात् राणा तलवार लिए वेग के साथ कमरे में दाखिल हुए। राजकुमार सँभलकर खड़ा हो गया। ~ ..