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मानसरोवर


मुलिया-दुनिया जो चाहे कहे ! दुनिया के हाथों बिकी नहीं हूँ। देख लेना, भाड़ लीपर हाथ झाला ही रहेगा। फिर तुम अपने भाइयों के लिए अरो, में क्यों मरूँ ?

रग्घू ने कुछ जवाब न दिया। उसे जिस बात का भय था, वह इतनी जल्द सिर पर आ पड़ी। अव अगर उसने बहुत तत्थोथो किया, तो साल-छः महीने और काम चलेगा बस, आगे यह डोंगा चलता नज़र नहीं आता। बकरे की मां कब तक खैर -मनायेगी।

एक दिन पन्ना ने महुए का सुखावन डाला। बरसात शुरू हो गई थी। वखार में अनाज गीला हो रहा था। लुलिया से बोल-बहू, ज़रा देखती रहना, मैं तालाब से नहीं आऊँ।

मुलिया ने लापरवाही से कहा -मुझे नोंद आ रही है, तुम बैठकर देखो। एक दिन न नहाओ तो क्या होगा।

पन्ना ने साड़ी उठाकर रख दी, नहाने न गई। मुलिया का चार खाली गया।

कई दिन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोप कर लौटी, अंधेरा हो दाया था। दिन-भर की भूखी थी। आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी ; सगर देखा तो यहाँ चूल्हा ठढा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। मुलिया से आहिस्ते से पूछा--आज अभी चूल्हा नहीं जला ?

केदार ने कहा--आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी।भाभी ने कुछ बनाया ही नहीं।

पन्ना--तो तुम दोग ने खाया क्या ?

केदार--कुछ नहीं, रात को रोटियाँ थों, खुन्नू और लछमन ने खाई। मैंने सत्तू खा लिया।

पन्ना--और बहू है।

केदार--वह तो पड़ी सो रही हैं, कुछ नहीं लाया। ‘पन्ना ने उसी वक्त चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गई। आटा गूंधती थी और रोती थी। क्या न सोब है, दिन-भर खेत में जली, ए आई तो चुल्हे के सामने जलना पड़ा।