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ज्योति


लड़कियां अपने बच्चों को तो परवाह नहीं करती, दूसरों के लिए कौन मरता है। सारी रात धनिया के लड़के को लिये जागती रही। मोहन ने कल की बातें इससे कह तो दो ही होंग। दूसरी लड़की होती तो मेरो भोर से मुंह फेर लेतो। मुझे जलाता, मुझसे ऐंटती। इसे तो जैसे कुछ मालम हो न हो। हो सकता है कि मोहन ने इससे कुछ कहा ही न हो। हो, यही बात है।

आज रुपिया बूटी को बड़ी सुन्दर लगी। ठीक तो है, अभी शौक-सिंगार न करेगी तो कत्र करेगी। शोक-सिगार इसलिए बुरा लगता है कि ऐसे आदमो आने भोग-विलास में मस्त रहते हैं। किसी के घर में आग ला जाय, उनसे मतला नहीं। उनका काम तो खाली दूसरों को रिझाना है। जैसे अपने हा को दूकान सजाये, राह-वलतों को बुलाते हो कि जरा इस दूकान को सैर भी करते जाइए। ऐसे उपकारी प्राणियों का सिगार बुरा नहीं लगता। नहीं, बल्कि और अच्छा लगता है। इससे मालूम होता है कि इसका रूप जितना सुन्दर है, उतना हो मन भो सुन्दर है। फिर कौन नहीं चाहता कि लोग उपके कप का बखान करें। किसे दुसरो की मांखों में खुल जाने को लालसा नहीं होती। बूटी का यौवन रूम का विदा हो चुका; फिर भी यह लालसा उसे बनी हुई है। कोई उसे रस-मी आंखों से देख लेता है, तो उसका मन कितना प्रतन जाता है। जमीन पर पाँव नहीं पड़ते फिर रूपा तो अभी जवान है।

उस दिन से रूपा प्राय दो-एक बार नित्य वूटो के घर आती। बूटो ने मोहन से भामह करके उसके लिए एक अच्छो-सी साड़ी मँगवा दो ? अगर रूपा कभी बिना काजल लगाये या वेरगी साड़ी पहने आ जाती, तो बूटो कहती-बहू बेटियों को यह जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता। यह भेष तो हम-जैसो बूढ़ियों के लिए है।

रूपा ने एक दिन कहा-तुम बूढ़ी काहे से हो गई अम्माँ ! लोगों को इशारा मिल जाय, तो भौंरी को तरह तुम्हारे आर महराने लो। मेरे दादा तो तुम्हारे द्वार पर धरना देने लगे।

घूटो ने मोठे तिरस्कार से कहा --- चल, मैं तेरी मां को मौत बनकर जाकती ?

'अम्माँ तो बूढ़ों हो गई ?

'तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे हैं।'

'हाँ ऐया, बड़ो अच्छी मिट्टी है उनकी।'