पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/२२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२३१
कायर

( ६ )

दूसरे दिन प्रेमा ने केशव के नाम यह पत्र लिखा ---

'प्रिय केशव!

तुम्हारे पूज्य पिताजी ने लालाजी के साथ जो भशिष्ट और अपमान जनक व्यवहार किया है, उसका हाल सुनकर मेरे मन में बड़ो शका उत्पन्न हो रही है। शायद उन्होंने तुम्हें भी डाट-फटकार बताई होगी, ऐसी दशा में मैं तुम्हारा निश्चय सुनने के लिए विकल हो रही हूं। मैं तुम्हारे साथ हर तरह का कष्ट झेलने को तैयार हूँ। मुझे तुम्हारे पिताजी की सम्पत्ति का मोह नहीं है, मैं तो केवल तुम्हारा प्रेम चाहती हूँ और उप्पो में प्रसन्न हूँ। आज शाम को यही आकर भोजन करो। दादा और मां दोनों तुमसे मिलने के लिए बहुत इच्छुक हैं । मैं वह स्वप्न देखने में मग्न हूँ, जब हम दोनों उस सूत्र में बंध जायँगे, जो हाना नहीं जानता। जो बड़ी से-बड़ो आपत्ति में भी अटूट रहता है।

तुम्हारी ---
 

प्रेमा।

सन्ध्या हो गई और इस पत्र का कोई जवाब न आया। उसको माता बार-बार पूछतो थी --- केशव आये नहीं ? बूढे लाला भो द्वार को और माँख लगाये बैठे थे। यहां तक कि रात के नौ बज गये ; पर न तो केशव ही आये, न उनका पत्र।

प्रेमा के मन में भाँति-भाँति के सकल्प-विकल्प उठ रहे थे; कशचित् उन्हें पन्न लिखने का अवकाश न मिला होगा, या आज आने को फुरसत न मिली होगी, कल अवश्य आ जायगे। केशव ने पहले उसके पास जो प्रेम पत्र लिखे थे, उन सबको उसने फिर पढ़ा ! उनके एक एक शब्द से कितना अनुराग टपक रहा था, उनमें कितना कम्पन था, कितनी विकलता, कितनी तोब आकांक्षा ! फिर उसे केशव के के वाश्य याद आये, जो उसने सैकड़ों हो पार कहे थे। कितनी बार वह उसके सामने रोया था। इतने प्रमाणों के होते हुए निराशा के लिये कहाँ स्थान था; मगर फिर भी सारो रात उसका मन जैसे सूली पर टँगा रहा।

प्रात काल कौशव का जवान आया। प्रेमा ने कांपते हुए हाथों से पत्र लेकर पड़ा। पत्र हाथ से गिर गया , ऐसा मान पड़ा, मानों उसके देह का रत स्थिर हो गया हो। लिखा था ---