पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/२४७

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अनुभव

'प्रियतम को एक वर्ष की सजा हो गई। और अपराध केवल इतना था, कि तीन। दिन पहले जेठ की तपती दोपहरी में उन्होंने राष्ट्र के कई सेवकों का शर्बत-पान से सत्कार किया था। मैं उस वक्त अदालत में खड़ी थी। कमरे के बाहर सारे नगर कौ राजनीतिक चेतना किसी पन्दी पशु की भाँति खड़ी चीत्कार कर रही थी। मेरे प्राण धन हथकड़ियों से पकड़े हुए लाये गये। चारों ओर सन्नाटा छा गया। मेरे भीतर हाहाकार मचा हुआ था, मानो प्राण पिघला जा रहा हो। आवेश की लहरें-सी उठसठर समस्त शरोर को रोमांचित किये देती थी। ओह ! इतना गर्ने मुझे कभी न हुआ था। चह अदालत, कुरसी पर बैठा हुआ अङ्ग अफसर, लाल ज़रीदार एड़ियाँ घे हुए पुलीस के कर्मचारी, सब मेरी आँखों में तुच्छ जान पड़ते थे । बार-बार जी मैं आता था, दौड़ कर जीवनधन के चरण से लिपट जाऊँ और उसी दशा में प्राण स्याग दें। कितनी शान्त, अनि चकित, तेज और स्वाभिमान से प्रदीप्त मूर्ति थे । ग्लानि, बिषार्थ या शोक की छाया भी न थी। नहीं, उन ओठ पर एक स्फूर्ति से भरी हुईं मनोहारिणी, ओजस्वी मुस्कान थी। इस अपराध के लिए एक वर्ष का कठिन काराबास ! वाह रे न्याय ! तेरी बलिहारी है। मैं ऐसे हुङ्गार अपराध करने की तैयार थी। प्राणनाथ ने चलते समय एक बार मेरी ओर देखा, कुछ मुसकिराये, फिर उनकी मुद्रा कठोर हो गई। अदालत से लौटकर मैंने पाँच रुपये की मिठाई मैंगवाई और स्वयसेव को बुलाकर खिलाया । और सन्ध्या समय मैं पहली बार कांग्रेस के जलवे में शरीक हुई-शरीक ही नहीं हुई, मंच पर जाकर बोली और सत्याग्रह की प्रतिज्ञा ले ली। मेरी आत्मा में इतनी शक्ति कहाँ से आ गई; नहीं कह सकती। सर्वस्व लुट जाने के बाद फिर किसकी शंका और किसका डर ! विधाता का कठोर-से-कठौर आघात भी अब मेरा क्या अहित कर सकता था ?

( २ )

दूसरे दिन मैंने दो तार दिये। एक पिताजी को, दुसरा ससुरजी को। ससुरजी 'वेन्शन पाते थे। पिताजी जगल के महकमे मैं अच्छे पद पर है; पर सारा दिन गुरु