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बड़े भाई साहब'


मगर बेचारे फेल हो गये। मुझे उन पर दया माती थी। नतीजा सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास होने की खुशी आधी हो गई। मैं भी फेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दुःख न होता; लेकिन विधि को बात कौन टाले।

मेरे मोर भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अन्तर और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई कि कहीं भाई साइब एक साल और फेल हो भाये, तो मैं उनके बराबर हो जाऊँ, फिर वह किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेंगे, लेकिन मैंने इस फमीने विचार को दिल से बलपूर्वक निकाल डाला। आखिर बह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डाँटते हैं। मुझे इस वक अप्रिय लगता है अवश्य ; मगर यह शायद उनके उपदशों का ही असर हो कि मैं दनादन पास होता जाता हूँ और इतने अच्छे नम्बरों से।

अबकी भाई साहब बहुत कुछ नर्म पड़ गये थे। कई बार मुझे डाटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धौरज से काम लिया। शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे ढाटने का अधिकार उन्हें नहीं रहा, या रहा, तो बहुत कम। मेरो स्वच्छन्दता भी बढ़ी। मैं उनकी सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं तो पास हो हो जाऊँगा, पढ़ें या न पढ़ें, मेरो तकदीर बलवान है। इस लिए भाई साहब के घर से जो थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बन्द हुआ। मुझे कनकौए वहाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतगबाजी हो को भेंट होता था; फिर भी मैं भाई साहब का अदा करता था, और उनकी नजर बचाकर कनकौए उड़ाता था। मामा देना, कने बाँधना, पतंग-दूरनामेंट की तैयारियाँ भादि समस्याएँ सब गुप्त रूप से हल की जाती थी। मैं भाई साहब को यह सदेह न करने देना चाहता था कि उनका सम्मान और लिहान मेरी नज़रों में कम हो गया है।

एक दिन सन्ध्या समय, होस्टल से दूर, मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। आँखे आसमान की ओर थी और मन उस आकाशगामी पथिक की भोर, जो मन्द गति से क्षमता पतन को भोर चला रहा था, मानों कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक मन से नये संस्कार ग्रहण करने जा रही हो। बालकों को एक पूरी सेना करगे और मारदार बाँस लिये उनका स्वागत करने को दौड़ी भा रही थी। किसी