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शांति


दैहिकता में मुझे सदेह है; लेकिन उस वक एक बार में चौंक ज़रूर पक्ष। हृदय में एक कम्पन-सा उठा लेकिन दूसरी नज़र में प्रतिमा मिट चुकी थी। द्वार खुला। गोपा के सिवा खोलनेवाला कौन था? मैंने उसे देखकर दिल थाम लिया। उसे मेरे आने की सूचना थी और मेरे स्वागत की प्रतीक्षा में उसने नई साड़ी पहन ली थी और शायद आल भी गुँथा लिये थे ; पर इन दो वर्षों में समय ने उस पर जो आघात किये थे, उन्हें क्या करती ? नारियों के जीवन में यह वह अवस्था है, जई रूप-लावण्य अपने पूरे विकास पर होता है, जब उसमें अल्हड़पन, चचलता और अभिमान की जगह आकर्षण, माधुर्य और रसिकता आ जाती है, लेकिन गोपा का यौवन बीत चुका था। उसके मुख पर झुर्रियों और विषाद को रेखाएँ अकित थीं, जिन्हें उसकी प्रयत्न- शील प्रसन्नता भी न मिटा सकती थी। केशों पर सफेदी दौड़ चली थी और एक-एक अग बूढ़ा हो रहा था।

मैंने करुण स्वर में पूछा --- क्या तुम बीमार थी, गोपा ?

गोपा ने आँसु पीकर कहा --- नहीं तो, मुझे तो कभी सिर-दर्द भी नहीं हुआ।

'तो तुम्हारी यह क्या दशा है। बिलकुल बूढ़ी हो गई हो।'

'तो अब जवानी लेकर करना ही क्या है ? मेरी उम्र भी तो पैंतीस के ऊपर हो गई।

'पैंतीस की उन्न तो बहुत नहीं होती।'

'हां, उनके लिए, जो बहुत दिन जीना चाहते हैं। मैं तो चाहती हूँ, जितनी जल्द हो सके, जीवन का अन्त हो जाय। बस सुन्नी के ब्याह को चिंता है। इससे छुट्टी पा जाऊँ, फिर मुझे जिंदगी की परवाह न रहेगी।'

अब मालूम हुआ कि जो सजन इस मकान में किरायेदार हुए थे, वह थोड़े दिनों के बाद तबदील होकर चले गये और तब से कोई दूसरा किरायेदार न आया। मेरे हृदय में बरछी-सी चुभ गई। इतने दिनों इन बेचारों का निर्वाह कैसे हुआ, यह कल्पना हो दुःखद थी।

मैंने-विरक्त मन से कहा --- लेकिन तुमने मुझे सूचना क्यों न दी। क्या मैं बिलकुल गैर हूँ ?

गोपा ने लज्जित होकर कहा --- नहीं-नहीं, यह बात नहीं है। तुम्हें गैर समझूँगी तो अपना किसे समझूँगी ? मैंने समझा, परदेश में तुम खुद अपने झमेले में पड़े होगे,