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शांति


जिस राह जाऊँ, सुनो मेरी पूजा करती रहे। सुनो भला इसे क्यों सहने लगी। उसे तो तुम जानते हो, कितनी अभिमानिनी है। वह उन नियों में नहीं है, जो पति को देवता समझती है और उसका दुर्व्यवहार सहतो रहती हैं। उसने सदैव दुलार और प्यार पाया है। वाप भी उस पर जान देता था। मैं भी आँख को पुतलो समतो थी। पति मिला छैला, जो आधी-आधी रात तक मारा-मारा फिरता है। दोनों में क्या पात हुई, यह कौन जान सकता है, लेकिन दोनों में कोई गांठ पढ़ गई है। न वह सुन्नी की परवाह करता है, न सुन्नी उसकी परवाह करती है। मगर वह तो अपने रंग में मस्त है, सुन्नी प्राण दिये देती है। उसके लिए सुन्नी की जगह मुन्ती है, सुन्नो के लिए उसकी उपेक्षा है --- और रुदन है।'

मैंने कहा --- लेकिन तुमने सुन्नी को समझाया नहीं ? उस लौंडे का क्या बिग- ड़ेगा ! इसकी तो ज़िन्दगी खराब हो जायगी।

गोपा की आँखों में आँसू भर आये। बोली --- भया, किस दिल से समझाऊँ ? सुन्नी को देखकर तो मेरी छाती फटने लगती है। बस, यहो जी चाहता है कि इसे अपने कलेजे में रख लें, कि इसे कोई कड़ी आंख से देख भो न सके। सुन्नी फूहड़ होती, कट-भाषिणी होती, आरामतलव होती, तो समझाती भी। क्या यह सममाऊँ हि तेरा पति गली गली मुंह काला करता फिरे, फिर भी तू उसकी पूजा किया कर ? मैं तो खुद यह अपमान न सह सकती। स्त्री-पुरुष में विवाह को पहली शर्त यह है कि दोनों सोलहों आने एक दूसरे के हो जाय । ऐसे पुरुष तो कम हैं, जो स्त्रा को जो-भर भी विचलित होते देखकर शात रह सकें, पर ऐसी स्त्रियां बहुत है, जो पति को स्वच्छन्द सममती हैं। सुन्नी उन स्त्रियों में नहीं है। वह अगर आत्म समर्पण करती है, तो आत्म-समर्पण चाहती भी है, और यदि पति में यह बात न हुई, तो वह उससे कोई सम्पर्क न रखेगी, चाहे उसका सारा जीवन रोते कट जाय।

यह कहकर गोपा भीतर गई और एक सिंगारदान लाकर उसके अन्दर के आभू- पण दिखाती हुई बोली --- सुन्नी इसे भबकी यहीं छोड़ गई। इसो लिए आई ही यो। ये वे गहने हैं, जो मैंने न जाने कितने कष्ट महकर बनवाये थे। उनके पीछे महीनों मारी-मारी फिरी थी। यों कहो कि भीख मांगकर जमा किये घे। सुन्नी अब इनको और आँख उठाकर भी नहीं देखती। पहने तो किसके लिए ? जिगार करे तो किस पर ? पाच सन्दक कपड़ों के दिये थे। कपड़े सोते सोते मेरो आँखें फट गई।