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मानसरोवर


इस विषय पर स्वयं एक किताब लिखी। इस रचना में उसने ऐसी विलक्षण विवेचना- शक्ति का परिचय दिया, उसकी शैली भी इतनी रोचक थी कि जनता ने उसे हाथों- हाथ लिया। इस विषय पर वह सर्वोत्तम ग्रंथ था ।

देश में धूम मच गई। यहाँ तक कि इटली और जर्मनी-जैसे देशों से उसके पास प्रगसा-पत्र आये, और इस विषय की पत्रिकाओं मे अच्छी-अच्छी आलोचनाएँ निकलीं । अन्त में सरकार ने भी अपनी गुणग्राहकता का परिचय दिया-उसे इंगलैंड जाकर इस कला का अभ्यास करने के लिए वृत्ति प्रदान की। और यह सब कुछ वागीश्वरी की सत्प्रेरणा का शुभ फ्ल था।

मनहर की इच्छा थी कि वागीश्वरी भी साथ चले ; पर वागीश्वरी उनके पॉव को बेड़ी न बनना चाहती थी। उसने घर रहकर सास-ससुर की सेवा करना ही उचित समझा।

मनहर के लिए इंगलैंड एक दूसरी ही दुनिया थी, जहाँ उन्नति के मुख्य साधनों मे एक रूपवती पत्नी का होना भी था, अगर पत्नी रूपवती है, चपल है, चतुर है, वाणी-कुशल है, प्रगल्भ है तो समझ लो कि उसके पति को सोने की खान मिल गई , अब वह उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। मनोयोग और तपस्या के बूते पर नहीं, पत्नी के प्रभाव और आकर्पण के बूते पर। उस ससार में रूप और लावण्य व्रत के बधनों से मुक्ता, एक अबाध सम्पत्ति थी। जिसने किसी रमणी को प्राप्त कर लिया, उसको मानो तकदीर खुल गई। यदि कोई सुन्दरी तुम्हारी सहधर्मिणी नहीं है, तो तुम्हारा सारा उद्योग, सारी कार्यपटुता निष्फल है। कोई तुम्हारा पुरसाँहाल न होगा , अतएव वहाँ लोग रूप को व्यापारिक दृष्टि से देखते थे ।

साल ही भर के अग्रेज़ो समाज के संसर्ग ने मनहर की मनोवृत्तियों में क्रान्ति पैदा कर दी। उसके मिज़ाज में सांसारिकता का इतना प्राधान्य हो गया कि कोमल भावों के लिए वहाँ कोई स्थान ही न रहा। वागीश्वरी उसके विद्याभ्यास में सहायक हो सकती थी , पर उसे अधिकार और पद की उँचाइयों पर न पहुँचा सकती थी। उसके त्याग और सेवा का महत्त्व भी अब मनहर की निगाहों मे कम होता जाता था। वागीश्वरी अब उसे एक व्यर्थ-सी वस्तु मालूम होती थी , क्योंकि उसकी भौतिक दृष्टि में हरएक वस्तु का मूल्य उससे होनेवाले लाभ पर ही अवलबित था। अपना पूर्व जीवन अब उसे हास्यप्रद जान पड़ता था। चंचल, हंसमुख, विनोदिनी अंग्रेज़-युवतियों के सामने