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मुफ्त का यश

लेकिन टोहियों ने जाने कैसे टोह लगा लिया। विशेष समुदायों में यह चर्चा होने लगी कि हाकिम-जिला से मेरी बड़ी गहरी मैत्री है, और वह मेरा बड़ा सम्मान करते हैं। अतिशयोक्ति ने मेरा सम्मान और भी बढा दिया। यहाँ तक मशहूर हुआ कि वह मुझसे सलाह लिये बगैर कोई फैसला या रिपोर्ट नहीं लिखते।

कोई समझदार आदमी इस ख्याति से लाभ उठा सकता था। स्वार्थ मे आदमी बावला हो जाता है । तिनके का सहारा हूँढता फिरता है। ऐसी को विश्वास दिलाना कुछ मुश्किल न था कि मेरे द्वारा उनका काम निकल सकता है , लेकिन मैं ऐसी बातों से घृणा करता हूँ। सैकड़ी व्यक्ति अपनी कथाएँ लेकर मेरे पास आये। किसीके साथ पुलिस ने बेजा ज्यादती की थी। कोई इन्कमटैक्सवालों की सख्तियों से दुखी था, किसीकी यह शिकायत थी कि दफ्तर में उसकी हकतलफी हो रही है और उसके पीछे के आदमियों को दनादन तरक्कियाँ मिल रही हैं। उसका नम्बर आता है, तो कोई परवाह नहीं करता। इस तरह का कोई-न-कोई प्रसंग नित्य ही मेरे पास आने लगा , लेकिन मेरे पास उन सबके लिए एक ही जवाब था-मुझसे कोई मतलब नहीं।

एक दिन मैं अपने कमरे मे बैठा था कि मेरे बचपन के एक सहपाठी मित्र आ टपके । हम दोनो एक ही मकतब में पढ़ने जाया करते थे। कोई ४५ साल की पुरानी बात है। मेरी उन ८-९ साल से अधिक न थी। वह भी लगभग इसी उन्न के रहे होंगे , लेकिन मुझसे कहीं बलवान् और हृष्ट-पुष्ट । मैं ज़हीन था, वह निरे कौदन । मौलवी साहब उनसे हार गये थे। और उन्हे सबक पढाने का भार मुझ पर डाल- दिया था। अपने से दुगुने व्यक्ति को पढाना मैं अपने लिए गौरव की बात समझता था और खूब मन लगाकर पढाता था। फल यह हुआ कि मौलवी साहव की छड़ी जहाँ असफल रही, वहाँ मेरा प्रेम सफल हो गया। बलदेव चल निकला, खालिक़वारी तक जा पहुँचा , मगर इस बोच मे मौलवी साहब का स्वर्गवास हो गया और वह शाखा टूट गई। उनके छात्र भी इधर उधर हो गये। तबसे वलदेव को मैंने केवल दो-तीन बार रास्ते मे देखा, ( मैं अब भी वही सींकिया पहलवान हूँ, वह अब भी वही भीमकाय ) राम-राम हुई, क्षेम-कुशल पूछा और अपनी-अपनी राह चले गये।

मैंने उनसे हाथ मिलाते हुए कहा-आओ भाई बलदेव, मजे मे तो हो ? कैसे याद किया ? क्या करते हो आजकल ?

बलदेव ने व्यथित कण्ठ से कहा-जिन्दगी के दिन पूरे कर रहे है भाई, और