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बालक

गंगू ने अपना दिल मजबूत किया । उसकी आकृति से स्पष्ट भलक रहा था, मानो वह कोई छलांग मारने के लिए अपनी सारी शक्तियों को एकत्र कर रहा हो। और लड़खड़ाती हुई आवाज मे बोला--मुझे आप छुट्टी दे दें। मैं आपकी नौकरी अब न कर सकूँगा।

यह इस तरह का पहला प्रस्ताव था, जो मेरे कानों में पड़ा। मेरे आत्माभिमान को चोट लगी । मैं जब अपने को मनुष्यता का पुतला समझता हूँ, अपने नौकरो को कभी कटु-वचन नहीं कहता, अपने स्वामित्व को यथासाध्य-म्यान में रखने की चेष्टा करता हूँ, तब मैं इस प्रस्ताव पर क्यो न विस्मित हो जाता ! कठोर स्वर में बोला- क्यो, क्या शिकायत है ?

'आपने तो हुजूर, जैसा अच्छा स्वभाव पाया है, वैसा क्या कोई पायेगा , लेकिन बात ऐसी आ पड़ी है कि अब मैं आपके यहां नहीं रह सकता। ऐसा न हो कि पीछे से कोई बात हो जाय, तो आपको बदनामी हो। मैं नहीं चाहता, मेरी वजह से आपकी आबरू मे वट्टा लगे।'

मेरे दिल में उलझन पैदा हुई । जिज्ञासा की अग्नि प्रचण्ड हो गई। आत्मसमर्पण के भाव से, बरामदे मे पड़ी हुई कुर्सी पर बैठकर बोला-तुम तो पहेलियाँ बुझवा रहे हो । साफ-साफ क्यों नहीं कहते, क्या मामला है ?

गंगू ने बड़ी नम्रता से कहा-बात यह है कि वह स्त्री जो अभी विधवा-आश्रम से निकाल दी गई है, वही गोमती देवी

वह चुप हो गया। मैंने अधीर होकर कहा- हाँ, निकाल दी गई है तो फिर ? तुम्हारी नौकरी से उससे क्या सम्बन्ध ?

गंगू ने जैसे अपने सिर का भारी बोझ जमीन पर पटक दिया-

'मैं उसते व्याह करना चाहता हूँ, बाबूजी !'

मैं विस्मय से उसका मुंँह ताकने लगा। यह पुराने विचारों का पोगा ब्राह्मण, जिसे नयी सभ्यता को हवा तक न लगी, उस कुलटा से विवाह करने जा रहा है, जिसे कोई भला आदमी अपने घर में कदम भी न रखने देगा। गोमती ने मुहल्ले के शान्त वातावरण में थोड़ी-सी हलचल पैदा कर दी। कई साल पहले वह विधवाश्रम में आई थी। तीन बार आश्रम के कर्मचारियों ने उसका विवाह कर दिया था , पर हर बार वह महीने-पन्द्रह दिन के बाद भाग आई थी। यहां तक कि आश्रम के मन्त्रो ने अबकी