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जीवन का शाप


आमदनी नहीं बढती, तो मैं क्या करूँ, क्या चाहती हो जान दे दूं? इस पर गुलशन ने उनके दोनों कान पकड़कर जोर से ऐंठे और गालो पर दो तमाचे लगाये और पैनी आँखों से काटती हुई बोली-अच्छा, अब चोंच सँभालो, नहीं अच्छा न होगा। ऐसी बात मुंह से निकालते तुम्हे लाज नही आती ? ह्यादार होते, तो चिल्लू-भर पानी मे डूब मरते ! उस दूसरे पुरुष के महल मे आग लग दूंगी, उसका मुंँह झुलस दूंँगी। तबसे बेचारे कावसजी के पास इस प्रश्न का कोई जवाब न रहा। कहाँ तो यह असन्तोष और विद्रोह की ज्वाला, ओर कहाँ वह मधुरता और भद्रता की देवी शीरी, जो कावसजी को देखते ही फल को तरह खिल उठतो, मीठी-मीठी बातें करती, चाय और मुग्ने और फूलो से सत्कार करती और अक्सर उन्हें अपनी कार पर घर पहुँचा देती ? कावसजी ने कभी मन मे भी इसे स्वीकार करने का साहस नहीं किया, मगर उनके हृदय में यह लालसा छिपी हुई थी कि गुलशन की जगह शीरी होती, तो उनका जीवन कितना गुलजार होता। कभी-कभी गुलशन की कटूक्तियो से वह इतने दुखी हो जाते कि यमराज का आवाहन करते। घर उनके लिए कंदखाने से कम जान-लेवा न था और उन्हे जब अवसर मिलता, सीधे शीरी के घर जाकर अपने दिल की जलन बुझा आते।

( २ )

एक दिन कावसजी सबेरे गुलशने से भलाकर शापूरजी के टेरेस में पहुंचे, तो देखा जोरों बानू की आँखें लाल हैं और चेहरा भभराया हुआ है, जैसे रोकर उठी हो। कावसजी ने चिन्तित होकर पूछा-आपका जी कैसा है, बुखार तो नहीं आ गया ?

शीरों ने दर्द-भरी आंखों से देखकर रोनी आवाज से कहा- नहीं, बुखार तो नहीं है, कम-से-कम देह का बुखार तो नहीं है।

कावसजी इस पहेली का कुछ मतलब न समझे।

शीरी ने एक क्षण मौन रहकर फिर कहा - आपको मै अपना मित्र समझती हूँ मि० कावसजी ! आपसे क्या छिपाऊँ । मैं इस जीवन से तंग आ गई हूँ। मैने अब तक हृदय की आग हृदय में रखी , लेकिन ऐसा मालूम होता है कि अब उसे बाहर न निकालूं, तो मेरो हड्डियाँ तक जल जायेंगी । इस वक्त आठ बजे हैं , लेकिन मेरे रँगीले पिया का कहीं पता नहीं। रात को खाना खाकर वह एक मित्र से मिलने का बहाना करके घर से निकले थे और अभी तक लौटकर नहीं