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जीवन का शाप


चुनौती दे रहे हैं। मैंने अब तक उनकी चुनौती नहीं ली है , लेकिन अब पानी सिर, से ऊपर चढ गया है और मैं किसो तिनके का सहारा ढूँढे विना नहीं रह सकती । वह जो चाहते हैं, वह हो जायगा। आप उनके मित्र है, आपसे बन पड़े, तो उनको समझाइए मैं इस मर्यादा को बेड़ी को अब और न पहन सकूँगी।

मि० कावसजी मन में भावी सुख का एक स्वर्ग-निर्माण कर रहे थे। बोले--- हाँ-हाँ, मैं अवश्य समझाऊँगा। यह तो मेरा धर्म है , लेकिन मुझे आशा नहीं कि मेरे समझाने का उन पर कोई असर हो। मैं तो दरिद्र हूँ, मेरे समझाने का उनकी दृष्टि में मूल्य ही क्या ?

'यो वह मेरे ऊपर बड़ी कृपा रखते हैं, बस उनकी यही आदत मुझे पसन्द नहीं ।'

'तुमने इतने दिनों बर्दाश्त किया, यही आश्चर्य है। कोई दूसरी औरत तो एक दिन न सहती।'

'थोड़ी-बहुत तो यह आदत सभी पुरुषो में होती है , लेकिन ऐसे पुरुषो की लियां भी वैसी ही होती हैं । कर्म से न सही, मन से हो सही। मैंने तो सदैव इनको अपना इष्टदेव समझा।'

'किन्तु जब पुरुष इसका अर्थ ही न समझे, तो क्या हो। मुझे भय है, वह मन मे कुछ और न सोच रहे हों।'

'और क्या सोच सकते हे ?'

'आप अनुमान नहीं कर सकती ?'

'अच्छा, वह बात ? सगर मेरा कोई अपराध ?'

'शेर और मेमनेपाली कथा आपने नहीं सुनो ?'

मिसेज़ शापूर एकाएक चुप हो गई। सामने से शापूरजी की कार आती दिखाई दी। उन्होने कावसजी को ताकीद और विनय-भरी आँखों से देखा और दूसरे द्वार से कमरे से निकलकर अन्दर चली गई । मि. शापूर लाल आँखें किये कार से उतरे और मुसकिराकर कावसजी से हाथ मिलाया । स्त्री की आँखें भी लाल थीं, पति की आंखें भी लाल । एक सदन से, दूसरी रात की खुमारी से।

(३)

शापूरजी ने हैट उतारकर गूंटी पर लटकाते हुए कहा-क्षमा कीजिएगा, मैं

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