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कुसुम

सूची भी वहीं रखी हुई है, मिला लीजिएगा। आज से आप मेरी ज़बान या कलम से कोई शिकायत न सुनेंगे। इस भ्रम को भूलकर भी दिल में स्थान न दीजिएगा कि मैं आपसे बेवफ़ाई या विश्वासघात करूंगी। मैं इसी घर मे कुढ़-कुढ़कर मर जाऊँगी, पर आपकी ओर से मेरा मन कभी मैला न होगा। मैं जिस जलवायु में पली हूँ, उसका मूल तत्व है पति मे श्रद्धा। ईर्ष्या या जलन भी उस भावना को मेरे दिल से, नहीं निकाल सकती। मैं आपके कुल मर्यादा की रक्षिका हूँ। उस अमानत मे जीते- जी ख्यानत न करूंगी, अगर मेरे बस मे होता, तो मैं उसे भी वापस कर देती, लेकिन यहाँ मैं भी मजबूर हूँ और आप भी मजबूर हैं। मेरी ईश्वर से यही विनती हैं कि आप जहाँ रहे, कुशल से रहे । जीवन मे मुझे सबसे कटु अनुभव जो हुआ, वह यही है कि नारी-जीवन अधम है, अपने लिए, अपने माता-पिता के लिए, अपने पति के लिए। उसकी कदर न माता के घर में है, न पति के घर मे । मेरा घर गोकागार बना हुआ है। अम्मा रो रही हैं, दादा रो रहे हैं, कुटुम्ब के लोग रो रहे हैं, एक मेरी जात से लोगो को कितनी मानसिक वेदना हो रही है। कदाचित् वे सोचते होगे, यह कन्या कुल में न आती तो अच्छा होता, मगर सारी दुनिया एक तरफ हो जाय, आपके ऊपर विजय नहीं पा सकती। आप मेरे प्रभु हैं। आपका फैसला अटल है। उसकी कहीं अपील नहीं, कहीं फरियाद नहीं । खैर, आज से यह काण्ड समाप्त हुआ, अब मैं हूँ और मेरा दलित, भग्न-हृदय । हसरत यही है कि आपको कुछ सेवा न कर सकी।

अभागिनी

--कुसुम

( ३ )

मालूम नहीं, मैं कितनी देर तक सूक-वेदना की दशा में बैठा रहा कि महाशय नवीन बोले---आपने इन पत्रों को पढकर क्या निश्चय किया ?

मेंने रोते हुए हृदय से कहा-अगर इन पत्रों ने उस नरपिशाच के दिल पर कोई असर नहीं किया, तो मेरा पत्र भला क्या असर करेगा। इससे अधिक करुणा और वेदना मेरी शक्ति के बाहर है। ऐसा कौन-सा धार्मिक भाव है, जिसे इन पत्रों में स्पर्श न किया गया हो। दया, लज्जा, तिरस्कार, न्याय, मेरे विचार में तो कुसुम ने कोई पहलू नहीं छोड़ा। मेरे लिए अब यही अन्तिम उपाय है कि उस शैतान के सिर पर‌