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मानसरोवर


मेरे अस्तित्व का एक-एक अणु उन भावनाओं से गुंँथा हुआ है। उन्हें दिल से निकाल डालना सहज नहीं है। उसके साथ मेरे जीवन के परमाणु भी बिखर जायेंगे, लेकिन आपकी यही इच्छा है तो यही सही। मैं आपकी सेवा मे सब कुछ करने को तैयार थी । अभाव और वियन्नता का तो कहना ही क्या, मैं तो अपने को मिटा देने को भी राज़ी थी। आपकी सेवा में मिट जाना ही मेरे जीवन का उद्देश्य था। मैने लज्जा और संकोच का परित्याग किया, आत्म सम्मान को पैरों से कुचला, लेकिन आप सुझ स्वीकार नहीं करना चाहते । मजबूर हूँ। आपका कोई दोष नहीं। अवश्य मुझसे कोई ऐसी बात हो गई है, जिसने आपको इतना कठोर बना दिया है। आप उसे जवान पर लाना भी उचित नहीं समझते। मैं इस निष्ठुरता के सिवा और हर एक सज़ा झेलने को तैयार थी। आपके हाथ से ज़हर का प्याला लेकर पी जाने में भी मुझे विलम्ब न होता, किन्तु बिवि की गति निराली है। मुझे पहले इस सत्य के स्वीकार करने में बाधा थी कि स्त्री पुरुष की दासी है। मैं उसे पुरुष को सचहरी, अर्धाङ्गिनी समझती थी, पर अब मेरी आँखें खुल गई। मैंने कई दिन हुए एक पुस्तक मे पढा था कि आदिकाल मे स्त्री पुरुष की उसी तरह सम्पत्ति थी, जैसे गाय, बैल या खेत-बारी। पुरुष को अधिकार था स्त्री को बेचे, गिरो रखे या मार डाले । विवाह की प्रथा उस समय केवल यह थी कि घर-पक्ष अपने सूर-सामन्तों को लेकर सशस्त्र आता था और कन्या को उड़ा ले जाता था। कन्या के साथ कन्या के घर मे रुपया-पैसा, अनाज या पशु जो कुछ उसके हाथ लग जाता था उसे भी उठा ले जाता था। स्त्री को अपने घर ले जाकर वह उसके पैरों में बेड़ियाँ डालकर घर के अन्दर बन्द कर देता था। उसके आत्म-सम्मान के भावो को मिटाने के लिए यह उपदेश दिया जाता था कि पुरुष ही उसका देवता है, सोहाग स्त्री की सबसे बड़ी विभूति है। आज कई हजार वर्षों के बीतने पर पुरुष के उस मनोभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पुरानी सभी प्रथाएँ कुछ विकृत या संस्कृत रूप में मौजूद हैं। आज मुझे मालूम हुआ कि उस लेखक ने स्त्री-समाज की दशा का कितना सुन्दर निरूपण किया था।

अब आपसे मेरा सविनय अनुरोध है, और यही अन्तिम अनुरोध है कि आप मेरे पत्रों को लौटा दें। आपके दिये हुए गहने और कपड़े अब मेरे किसी काम के नहीं। इन्हें अपने पास रखने का मुझे कोई अधिकार नहीं। आप जिस समय चाहें, वापस मँगवा लें। मैने उन्हें एक पेटारी मे बन्द करके अलग रख दिया है। उनकी‌