पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/२०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२०
मानसरोवर


सो चीज भी दे दो, तो कितना फूल उठती है । थोड़ी-सी तारीफ करके चाहे उससे गुलामी करवा लो । अव उन्हें अपना जरा-जरा-सी बात पर झुँझला पड़ना, उसकी सीधी-सी बातो का टेढा जवाब देना, विकल करने लगा। उस दिन उसने यही तो कहा था कि उसकी छोटी बहन के सालगिरह पर कोई उपहार भेजना चाहिए। इसमें बरस पड़ने की कौन-सी बात थी। माना, वह अपना सम्पादकीय नोट लिख रहे थे, लेकिन उनके लिए सम्पादकीय नोट जितना महत्व रखता है, क्या गुलशन के लिए उपहार भेजना उतना ही या उससे ज्यादा महत्त्व नहीं रखता ? बेशक उनके पास उस समय रुपये न थे, तो क्या वह मीठे शब्दों में यह नहीं कह सकते थे कि डालिङ्ग, मुझे खेद है, अभी हाथ खाली है, दो-चार रोज़ में मैं कोई प्रबन्ध कर दूंगा। यह जवाब सुन- कर वह चुप हो जाती । और अगर कुछ भुनभुना ही लेती, तो उनका क्या बिगड़ जाता था। अपनी टिप्पणियों मे वह कितनी शिष्टता का व्यवहार करते हैं । कलम ज़रा भी गर्म पड़ जाय, तो गर्दन नापी जाय । गुलशन पर वह क्यो बिगड़ जाते हैं । इसी लिए कि वह उनके अधीन है और उन्हें रूठ जाने के सिवा कोई दण्ड नहीं दे सकती। कितनी नीच कायरता है कि हम सबलों के सामने दुम हिलायें और जो हमारे लिए अपने जीवन का बलिदान कर रही है, उसे काटने दौड़ें।

सहसा एक तांगा आता हुआ दिखाई दिया और सामने आते ही उस पर से एक स्त्री उतरकर उनकी ओर चली । अरे ! यह तो गुलशन है । उन्होंने आतुरता से आगे बढकर उसे गले लगा लिया और बोले--तुम इस वक्त यहाँ कैसे आई ? मैं अभी- अभी तुम्हारा ही खयाल कर रहा था।

गुलशन ने गद्गद कण्ठ से कहा-तुम्हारे ही पास जा रही थी। शाम को बरा- मदे में बैठी तुम्हारा लेख पढ़ रही थी । न-जाने कब झपकी आ गई, और मैने एक बुरा सपना देखा । मारे डर के मेरी नींद खुल गई और तुमसे मिलने चल पड़ी । इस वक्त यहाँ कैसे खड़े हो ? कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई ? रास्ते-भर मेरा कलेजा धड़क रहा था।

कावसजी ने आश्वासन देते हुए कहा-मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ। तुमने क्या स्वप्न देखा?

'मैंने देखा-जैसे तुमने एक रमणी को कुछ कहा है और वह तुम्हें बांधकर घसीटे लिये जा रही है।'