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डामुल का कैदी


भांति उनका हृदय थरथरा उठा। मन में ऐसा उद्गार उठा कि इसके चरणों पर गिर पड़े और कहूँ-देवी, इस पतित का उद्धार करो, किन्तु तुरन्त विचार आया-कहीं यह देवी मेरी उपेक्षा न करे। इस दशा में उसके सामने जाते उन्हें लज्जा आई।

कुछ दूर चलने के बाद प्रमीला एक गली में मुड़ी। सेठजी भी उसके पीछे चले जाते थे। आगे एक मंजिल की हवेली थी। सेठजी ने प्रमीला को उसे चाल में घुसते देखा, पर यह न देख सके कि वह किधर गई। द्वार पर खड़े-खडे सोचने लगे-किससे पूछे।

सहसा एक किशोर को भीतर से निकलते देखकर उन्होंने उसे पुकारा। युवक ने उनकी और चुभती हुई आँख से देखा और तुरन्त,उनके चरणों पर गिर पड़ा। सेठजी का कलेजा चक्र से हो उठा। यह तो गोपी था, केवल उम्र में उससे कम। वही रूप था, वही डोल या, मानो वह कोई नया जन्म लेकर आ गया हो। उनका सारा शरीर एक विचित्र भय से सिहर उठा।

कृष्णचन्द्र ने एक क्षण में उठकर कहा-हम तो आज आपको प्रतीक्षा कर रहे थे। चन्दर पर जाने के लिए एक गाड़ी लेने जा रहा था। आपको तो यहाँ आने में बड़ा कष्ट हुआ होगा। आइए, अन्दर आइए। मैं आपको देखते ही पहचान गया। कहीं भी देखकर पहचान जाता।

खूबचन्द उसके साथ भीतर चले तो, मगर उनका मन जैसे अतीत के कांटो में उलझ रहा था। गोपी की सूरत क्या वह कभी भूल सकते थे? इस चेहरे को उन्होंने कितनी ही बार स्वप्न में देखा था। वह कांड उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी, और आज एक युग बीत जाने पर भी वह उनके पक्ष में उसी भाँति अटल खड़ी थी।

एकाएक कृष्णचन्द्र जीने के पास रुककर बोला-जाकर अम्माँ से कह आऊं, दादा आ गये। आपके लिए नये-नये कपड़े बने रखे हैं।

खूबचन्द ने पुत्र के मुख का इस तरह चुम्बन किया, जैसे वह शिशु हो और उसे गोद में उठा लिया। वह उसे लिये जीने पर चढ़े चले जाते थे। यह मनोल्लास की शक्ति थी।

( ७ )

तीस साल से व्याकुल पुत्र लालसा यह पर्दा पाकर, जैसे उस पर न्यौछावर हो जाना चाहती है। जीवन नयी-नयी अभिलाषाओं को लेकर उन्हें सम्मोहित कर रहा है,