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मानसरोवर


इस रत्न के लिए वह ऐसी-ऐसी कितनी ही यातनाएँ सहर्ष झेल सकते थे। अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ अनुभव के रूप में कमाया था, उसका तत्त्व वह अब कृष्णचन्द्र के मस्तिष्क में भर देना चाहते हैं। उन्हें यह अरमान नहीं है कि कृष्णचन्द्र धन का स्वामी हो, चतुर हो, यशस्वी हो; बल्कि दयावान हो, सेवाशील हो, नम्र हो, श्रद्धालु हो। ईश्वर की दया से अब उन्हें असीम विश्वास है, नहीं उन-जैसा अवम व्यक्ति क्या इस योग्य था कि इस कृपा का पात्र बनता है और प्रमीला तो साक्षात् लक्ष्मी है।

कृष्णचन्द्र भी पिता को पाकर निहाल हो गया है। अपनी सेवाओं से मानो उनके अतीत को भुला देना चाहता है। मानो पिता की सेवा ही के लिए उसका जन्म हुआ है। मानो वह पूर्वजन्म का कोई ऋण चुकाने के लिए ही संसार में आया है।

आज सेठजी को आये सातवाँ दिन है। सन्ध्या का समय है। सेठजी सन्ध्या करने जा रहे हैं कि गोपीनाथ की लड़की विन्नी ने आकर प्रमीला से कहा-माताजी, अम्माँ का जी अच्छा नहीं है । भैया को बुला रही हैं।

प्रमीला ने कहा-आज तो वह न जा सकेगा। उसके पिता आ गये हैं, उनसे बातें कर रहा है।

कृष्णचन्द्र ने दूसरे कमरे में से उसकी बाते सुन लीं। तुरन्त आकर बोला-नहीं अम्माँ, मैं दादा से पूछकर जरा देर के लिए चला जाऊँगा।

प्रमीला ने बिगड़कर कहा-तू वहाँ जाता है, तो तुझे घर की सुधि ही नहीं रहती। न-जाने उन सभी ने तुझे क्या बूटी सूंघा दी है।

'मैं बहुत जल्द चला आऊँगा अम्मा, तुम्हारे पैरों पड़ता हूं।'

तू भी कैसा लड़का है। वह बेचारे अकेले बैठे हुए हैं और तुझे वहाँ जाने की पड़ी हुई है।

सेठजी ने भी यह बातें सुनीं। आकर बोले-क्या हरज है, जल्दी आने को कह रहे हैं तो जाने दो।

कृष्णचन्द्र प्रसन्नचित्त विन्नी के साथ चला गया। एक क्षण के बाद प्रमीला ने कहा-जब से मैंने गोपी की तस्वीर देखी है, मुझे नित्य शक बनी रहती है कि न जाने भगवान् क्या करने वाले हैं। बस यही मालूम होता है।