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डामुल का कैदी

मजूरों ने सुना , पर उन्हे वह आनन्द न हुआ, जो एक घंटा पहले होता। कृष्णचन्द्र को बलि देकर बड़ी-से-बड़ी रिआयत भी उनकी निगाहों में हेंच थी।

अभी अभी न उठने पाई थी कि प्रमोला लाल आँखें किये, उन्मत्त-सी दौडी आई और उस देह से चिपट गई, जिसे उसने अपने उदर से जन्म दिया और अपने रक्त से पाला था। चारो तरफ हाहाकार मच गया। मजूर और मालिक ऐसा कोई न था, जिसको आँखों से आँसुओं की धारा न निकल रही हो।

सेठजी ने समीप जाकर प्रमीला के कन्धे पर हाथ रखा और बोले- क्या करती हो प्रमीला, जिसकी मृत्यु पर हँसना और ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए, उसकी मृत्यु पर रोती हो।

प्रमीला उसी तरह शव को हृदय से लगाये पड़ी रहो। जिस निधि को पाकर उसने विपत्ति को सम्पत्ति समझा था, पति-वियोग के अन्धकारमय जीवन मे जिस दीपक से आशा, धैर्य और अवलम्ब पा रही थी, वह दीपक बुझ गया था। जिस विभूति को पाकर ईश्वर की निष्ठा और भक्ति उसके रोम-रोम मे व्याप्त हो गई थी, वह विभूति उससे छीन ली गई थी।

सहसा उसने पति को अस्थिर नेत्रो से देखकर कहा--तुम समझते होगे, ईश्वर जो कुछ करता है, हमारे कल्याण के लिए ही करता है। मैं ऐसा नहीं समझती। समझ ही नहीं सकती । केसे समझू ? हाय मेरे लाल ! मेरे लाडले ! मेरे राजा, मेरे सूर्य, मेरे चन्द्र, मेरे जीवन के आवार, मेरे सर्वस्व ! तुझे खोकर कैसे चित्त को शान्त रखूँ ? जिसे गोद मे देखकर मैंने अपने भाग्य को धन्य माना था, उसे आज धरती पर पड़ा देखकर हृदय को कैसे सॅभालू ? नहीं मानता ! हाय, नहीं मानता !!

यह कहते हुए उसने जोर से छाती पीट ली।

उसी रात को शोकातुर माता संसार से प्रस्थान कर गई । पक्षी अपने बच्चे की खोज में पिजरे से निकल गया ।

( १० )

तीन साल बीत गये।

श्रमजीवियों के मुहल्ले मे आज कृष्णाष्टमी का उत्सव है , उन्होने आपस मे चन्दा करके एक मन्दिर बनवाया है। मन्दिर आकार में तो बहुत सुन्दर और विशाल नहीं , पर जितनी भक्ति से यहाँ सिर झुकते हैं, वह बात इससे कहीं विशाल मन्दिरों

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