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कुसुम

'इसीलिए कि यह उसी तरह को डाकाज़नी है, जैसे बदमाश लोग किया करते हैं। किसी आदमी को पकड़कर ले गये और उसके घरवालो से उसके मुक्तिधन के तौर पर अच्छी रकम ऐंठ ली।

माता ने तिरस्कार की आँखों से देखा।

'कैसी बातें करती हो बेटी ? इतने दिनों के बाद तो जाके देवता सीधे हुए हैं और तुम उन्हें फिर चिढाये देती हो।'

कुसुम ने झल्लाकर कहा----ऐसे देवता का रूठे रहना ही अच्छा । जो आदमी इतना स्वार्थी, इतना दम्भी, इतना नीच है, उसके साथ मेरा निर्वाह न होगा। मैं कहे देती हूँ, वहाँ रुपये गये, तो मैं ज़हर खा लूँगी। इसे दिल्लगी न समझना । मैं ऐसे आदमी का मुंँह भी नहीं देखना चाहती । दादा से कह देना और अगर तुम्हें डर लगता हो, तो मैं खुद कह दूंँ। मैने स्वतन्त्र रहने का निश्चय कर लिया है।

मां ने देखा, लड़की का मुखमण्डल आरक्त हो उठा है। मानो इस प्रश्न पर वह न कुछ कहना चाहती है, न सुनना ।

दूसरे दिन नवीनजी ने यह हाल मुझसे कहा, तो मैं एक आत्मविस्मृत की दशा में दौड़ा हुआ गया और कुसुम को गले लगा लिया। मैं नारियों में ऐसा ही आत्मा- भिमान देखना चाहता हूँ। कुसुम ने वही कर दिखाया, जो मेरे मन में था और जिसे प्रकट करने का साहस मुझमे न था ।

साल-भर हो गया है, कुसुम ने पति के पास एक पत्र भी नहीं लिखा और न उसका ज़िक्र ही करती है। नवीनजी ने कई बार जमाई को मना लाने की इच्छा प्रकट की ; पर कुसुम उसका नाम भी सुनना नहीं चाहती। उसमे स्वाव-लम्बन को ऐसी दृढता आ गई है कि आश्चर्य होता है। उसके मुखपर निराशा और वेदना के पीलेपन और तेजहीनता की जगह स्वाभिमान और स्वतन्त्रता की लाली और तेजस्विता भासित हो गई है।