'अब मैं कैसे तुम्हें विश्वास दिलाऊँ ।'
'तुम आंखों में धूल झोंकती हो।'
'अच्छा मुसकिराई ! बस, या जान लोगी।'
'तुम्हे किसी के ऊपर मुसकिराने का क्या अधिकार है ?'
'तेरे पैरो पड़ती हूँ नीला, मेरा गला छोड़ दे। मैं बिलकुल नहीं मुसकिराई।'
'मैं ऐसी अनीली नहीं हूँ।
'यह मैं जानती हूँ।
'तुमने मुझे हमेशा झूठी समझा है।'
'तू आज किसका मुंह देखकर उठी है ?'
'तुम्हारा।'
'तू मुझे थोड़ा सखिया क्यों नहीं दे देती ?'
'हां, मैं तो हत्यारिन हूँ ही।
'मैं तो नहीं कहती।'
'अब और कैसे कहोगी, क्या ढोल बजाकर । मैं हत्यारिन हूँ, मदमाती हूँ, दीदा दिलेर हूँ , तुम सर्वगुणागरी हो, सती हो, सावित्री हो । अब खुश हुई ।'
'लो कहती हूँ, मैंने उन्हें पत्र लिखा, फिर तुमसे मतलब ? तुम कौन होती हो मुम्से जवाब तलब करनेवाली ?'
'अच्छा किया लिखा, सचमुच मेरी बेवकूफी थी कि मैंने तुमसे पूछा ।'
'हमारी खुशी, हम जिसको चाहेगे खत लिखेंगे, जिससे चाहेगे बोलेंगे, तुम कौन होती हो रोकनेवाली ? तुमसे तो मैं नहीं पूछने जाती, हालांकि रोज़ तुम्हे पुलिन्दों पत्र लिखते देखती हूँ।
'जब तुमने शर्म ही भून खाई, तो जो चाहो करो, अख्तियार है।'
'और तुम कबसे बड़ी लज्जावती बन गई ? सोचती होगी अम्मा से कह दूंगी, यहाँ इसकी परवाह नहीं है । मैंने उन्हे पत्र भी लिखा, उनसे पार्क में मिली भी, बात- चीत भी की, जाकर अम्मा से, दादा से और सारे महल्ले से कह दो।'
'जो जैसा करेगा, आप भोगेगा, मैं क्यो किसीसे कहने जाऊँ।'
'ओ हो, बड़ी धैर्यवाली, यह क्यों नहीं कहती, अंगूर खट्टे हैं।'
'जो तुम कहो वही ठीक ।'