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वेश्या

मुँह-हाथ धोकर सिगारसिंह के घर पर ही भोजन करने का इरादा करके दया- कृष्ण उससे मिलने चला । नौ बज गये थे और हवा और धूप में गर्मी आने लगी थी।

सिंगारसिह उसकी खबर पाते ही बाहर निकल आया। दयाकृष्ण उसे देखकर चौंक पड़ा। लम्बे-लम्बे केशों की जगह उसके सिर पर घुँघराले बाल थे ( वह सिक्ख था ), आड़ो मांग निकाली हुई। आँखों में न आंसू थे, न शोक का कोई दूसरा चिह्न । चेहरा कुछ ज़र्द अवश्य था , पर उस पर विलासिता की मुस्कराहट थी। वह एक महीन रेशमी कमीज़ और मखमली जूते पहने हुए था , मानो किसी महफिल से उठा आ रहा हो । समवेदना के शब्द दयाकृष्ण के ओठो तक आकर निराश लौट गये। वहाँ बधाई के शब्द ज्यादा अनुकूल प्रतीत हो रहे थे।

सिंगारसिह लपककर उसके गले से लिपट गया और बोला--तुम खूब आये यार, इधर तुम्हारी बहुत याद आ रही थी , मगर पहले यह बतला दो, वहां का कारोबार बन्द कर आये या नहीं ? अगर वह झंझट छोड़ आये हो, तो पहले उसे तिलांजलि दे आओ। अब आप यहाँ से जाने न पायेंगे। मैंने तो भई अपना कैंडा़ बदल दिया । बताओ, कब तक तपस्या करता ? अव तो आये-दिन जलसे होते हैं। मैंने सोचा यार, दुनिया में आये तो कुछ दिन सैर-सपाटे का आनन्द भी उठा लो । नहीं, एक दिन यो हो हाथ मलते चले जायेंगे। कुछ भी साथ न जायगा ।

दयाकृष्ण विस्मय से उसके मुंह की ओर ताकने लगा । यह वही सिंगार है या कोई और ! बाप के मरते ही इत्नी तब्दीली !

दोनों मित्र कमरे मे गये और सोफे पर बैठे। सरदार साहब के सामने इस कमरे में फर्श और मसनद की आलमारी थी। अब दर्जनों गद्देदार सोफे और कुर- सियां हैं, कालीन का फर्श है, रेशमी परदे हैं, बड़े-बड़े आईने हैं । सरदार साहब को सचय की धुन थी, सिंगार को उङाने की धुन है।

सिंगार ने एक सिगार जलाकर कहा- तेरी बहुत याद आती थी यार, तेरी जान की कसम ।

दयाकृष्ण ने शिकवा किया-क्यो झूठ बोलते हो भाडे, महीनों गुज़र जाते थे। एक खत लिखने की तो आपको फुर्सत न मिलती थी, मेरो याद आती थी।

सिंगार ने अल्हड़पन से कहा-वस, इसी बात पर मेरी सेहत का एक जाम पियो। अरे यार, इस ज़िन्दगी में और क्या रखा है। हँसी-खेल में जो वक्त कट‌