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मानसरोवर

'किराये के २०) और दे दूँगा।'

'हम किराया क्यों दें। वह आप ही घर छोड़ रहे हैं। हम तो कुछ कहते नहीं।'

'किराया तो देना ही पड़ेगा। ऐसे आदमी के साथ कुछ बल भी खाना पड़े तो बुरा नहीं लगता।'

'मैं तो समझती हूँ, वह किराया लेंगे ही नहीं।'

'तीस रुपये में गुजर भी तो न होता होगा।'

(५)

प्रकाश ने उसी दिन वह घर छोड़ दिया । उस घर में रहने से जोखिम था, लेकिन जब तक शादो की धूमधाम रही, प्राय सारे दिन यहीं रहते थे। चम्पा से कहा, एक सेठजी के यहाँ ५०) महीने का काम और मिल गया है ; मगर यह रुपये मैं उन्हीं के पास जमा करता जाऊँगा। वह आमदनी केवल जेवरों में खर्च होगी। उसमें से एक पाई घर के खर्च मे न आने दूंगा । चम्पा फड़क उठी । पति-प्रेम का यह परिचय पाकर उसने अपने भाग्य को सराहा, देवताओं में उसकी श्रद्धा और बढ़ गई।

अब तक प्रकाश और चम्पा के बीच में कोई परदा न था । प्रकाश के पास जो कुछ था, वह चम्पा का था। चम्पा ही के पास उसके वक्स, संदूक, आलमारी की कुञ्जियाँ रहती थीं , सगर अब प्रकाश का एक संदूक हमेशा बन्द रहता। उसकी कुञ्जी कहाँ है, इसका चम्पा को पता नहीं। वह पूछती है, इस सन्दूक में क्या है, तो वह कह देते हैं कुछ नहीं, पुरानी किताचे मारी-मारी फिरती थीं, उठाके सन्दुक में बन्द कर दी है। चम्पा को सदेह का कोई कारण न था।

एक दिन चम्पा पति को पान देने गई तो देखा, वह उस सन्दूक को खोले हुए देख रहे हैं। उसे देखते ही उन्होंने सन्दूक जल्दी से बन्द कर दिया। उनका चेहरा जैसे फक हो गया । सन्देह का अकुर जमा , मगर पानी न पाकर सूख गया । चम्पा किसी ऐसे कारण की कल्पना ही न कर सकी, जिससे सन्देह को आश्रय मिलता!

लेकिन पाँच हजार की सम्पत्ति को इस तरह छोड़ देना कि उसका ध्यान ही न आये, प्रकाश के लिए असम्भव था । वह कहीं बाहर से आता, तो एक वार सन्दूक अवश्य खोलता।

एक दिन पड़ोस में चोरी हो गई। उस दिन से प्रकाश अपने कमरे ही में सोने‌