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मानसरोवर

हिला देनेवाला पत्र लिखें कि वह लज्जित हो जाय और उसकी प्रेम-भावना सचेत हो उठे। मैं जीवन-पर्यन्त आपका आभारी रहूँगा ।'

नवीनजी कवि ही तो ठहरे। इस तजवीज में वास्तविकता की अपेक्षा कवित्व ही की प्रधानता थी । आप मेरे कई गल्पो को पढकर रो पड़े हैं, इससे आपको विश्वास हो गया है कि मैं चतुर सँपेरे की भाँति जिस दिल को चाहू, नचा सकता हूँ। आपको यह मालूम नहीं कि सभी मनुष्य कवि नहीं होते, और न एक-से भावुक । जिन गल्पों को पढ़कर आप रोये हैं, उन्हीं गल्पों को पढ़कर कितने ही सज्जनो ने विरक्त होकर पुस्तक फेंक दी है । पर इन बातों का वह अवसर न था । वह समझते कि मैं अपना गला छुड़ाना चाहता हूं, इसलिए मैंने सहृदयता से कहा--आपको बहुत दूर की सूझी है और में उस प्रस्ताव से सहमत हूँ, और यद्यपि आपने मेरी करुणोत्पादक शक्ति का अनुमान करने में अत्युक्ति से काम लिया है। लेकिन मैं आपको निराश न करूगा । मैं पत्र लिखूंँगा और यथाशक्ति उस युवक की न्याय-बुद्धि को जगाने की चेष्टा भी करूगा, लेकिन आप अनुचित न समझें तो पहले मुझे वह पत्र दिखा दें, जो कुसुम ने अपने पति के नाम लिखे थे। उसने पत्र तो लौटा ही दिये हैं और यदि कुसुम ने उन्हें फाड़ नहीं डाला है, तो उसके पास होगे । उन पत्रों को देखने से मुझे ज्ञात हो जायगा कि किन पहलुओं पर लिखने की गुजांइश बाकी है।

नवीनजी ने जेब से पन्नों का एक पुलिन्दा निकालकर मेरे सामने रख दिया और बोले--मैं जानता था, आप इन पत्रों को देखना चाहेंगे, इसलिए इन्हें साथ लेता आया । आप इन्हें शौक से पढ़ें। कुसुम जैसी मेरी लड़की है, वैसी ही आपकी भी लड़की है । आपसे क्या परदा।

सुगन्धित, गुलाबी, चिकने कागज पर बहुत ही सुन्दर अक्षरों में लिखे हुए उन पत्र को मैंने पढना शुरू किया--

पहला पत्र

मेरे स्वामी, मुझे यहाँ आये एक सप्ताह हो गया ; लेकिन आँखें पल भर के लिए भी नहीं झपकीं । सारी रात करवटें बदलते बीत जाती है । बार-बार सोचती हूँ, मुझ से ऐसा क्या अपराध हुआ कि उसकी आप मुझे यह सज़ा दे रहे है। आप मुझे झिड़के, घुड़के, कोसें, इच्छा हो तो मेरे कान भी पकड़ें । मैं इन सभी सज़ाओं को सहर्ष सह लूंगी;लेकिन यह निष्ठुरता नहीं सही जाती। मैं आपके घर एक सप्ताह रही । पर-