तुम क्या चाहते हो? इसको इस प्रकार भी कह सकते हैं कि तुम्हारी क्या अभिलाषा है? जिसकी पूर्ण मनोबल से इच्छा अथवा अभिलाषा होती है हम उसके ऊपर विचार करते हैं और फिर उसकी पूर्ति के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं। हमें मालूम होता है कि इच्छा करते हैं; परन्तु जब हम अपनी इच्छाओं को भलीभांति परीक्षा करते हैं तो प्रायः देखते हैं कि वे हार्दिक नहीं हैं, अथवा हम किसी आदर्श की अभिलाषा करते हैं; परन्तु पूर्णरूप से विचार करने पर हम देखते हैं कि वह केवल बाहरी मन से हैं। हम उनको आसानी से छोड़ देते हैं। यथार्थ में हम यह करते हैं कि किसी वस्तु को चाहते तो बहुत है; परन्तु उस पर पूर्ण विश्वास नहीं रखते कि वह मिलेगी। इस प्रकार की इच्छा उत्पादक नहीं है। यह केवल चलतू भ्रम है जो पैदा होते ही नष्ट हो जाता है। इससे क्षणभर भी मेरा यह अभिप्राय नहीं है कि ऐसी इच्छा या अभिलाषा हानिकारक होती है किन्तु मेरा यह विश्वास है कि चरित्र पर इसका प्रभाव अत्यन्त हानिकारक और बुरा पड़ता है।
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