पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/१११

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कंस कुमोदिनि साथ खिले वन्नबंद भए सिगरे छविहीने सीरी छबारि बहै सुखदा तम से भर दारिद हुन दिळीने । अन्म भयो सिय पुत्रन को कि टए बर सूरज बंद नवीन्ने । सीय को लोक बिनासन को जुग रूप निधी रघुनाथहि लीने । सकल भाँति लब टार प्रभागन किए मुम्बारी: भए बंधु जुग परम सती दाता धनुधारी तानि भुवन मह रामचंद्र के पुत्र कहर ; अनुज बल शत्रुन मोति सकल दिसि कोरनि छाए । पुनि बडोल मही परत चंद्र सुर-सम मसमरे नर, नाग, देव, दानव, सबै सेवत है संकित खरे । आरंभ के गद्य लेख संवत् ११५६ में सरस्वती पत्रिका निकली। संवत् २७ में इसो पत्रिका के लिये हमने हम्मीर-हट तथा पंडित श्रीधर पाठक की रचनात्रा पर समालोचना जिलों और हिंदी काव्य-पालोचना में साहित्यप्रणाली के दोषी पर विचार किया।यहो तीनों हमारे यहले गद्य-खेल थे। संवत् १६२८ में उपयंक देखों में दोषारोपण करनेवाले कद घालो. चौबाले लेखों के उत्तर दिए गए नया पद्य में विक्टोरिया-अष्टादशी, हिंदी-प्रपल एवं मदन-दहन लिखे गए। पंडित श्रीधर पाठकसंबंधी लेग्ल में दोनों के विशेष दर्शन हुए और हिंदी काव्य-मालोचना के विषय में पंडित किशोरीला गोस्वामी ने काव्य-चक्षण-विषयक एक विद्वत्ता पूर्ण लेख लिखा है उसमें कुछ विवादवाक्य शब्द के अर्थ पर आ पहुँचा । इसके उत्तर में हमने भाषा के प्राचार्यों का प्रमाण देकर अपने अर्थ को समर्थित किया। हिंदी-काव्य-बालोचना के विषय में अगलबारों में एक वर्ष तक वाद विवाद चलते रहे, जिनमें सत्य देवीप्रसाद पूर्ण ने भी कुछ लेख लिखे । विशेष झगड़ा इस बात पर था किनायिकाग्री की रोमावलो का वर्सन्न नख-शिखों में उचित होता