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मिश्रबंधु-विनोंद

सिअर्थ-विनोद कैयक इक्कार के बार ब्रेरी मारि डरे , रंजक उनि मान गिनि रिसाने की । संद अफरहन सैन समस्र सुसन लाई , कपिल सरप ल तप तोपखाने की । अतिराम { १७३७) कङ नहीं है मतिराम रहौ तितही जिंदहीं सुन भायौं । काहे कौं सोहैं इजार करो तुम त कबहूँ अपराध न य ।। वन डी, का दाजै इनैं दुख, ब्रों हीं कहा रसबाद बड़ाये । माझ रोई नहीं मन मोहून भनिन। होय ८ माने मनायो । उद्यम कबहुँ न छाँडिए, पर शासन के द} । ररि कैसे फोरिन, उनः वि पद ? चििढ़ झी हिदूरी क्यों न तुदी अझनै अन्,ि । नित प्रति सुदानि मुख ॐ निइर ! लफ्नै कहाँ छौं थाने की दिक्कल बातें , अपने अनई पट्ट ने दिन । देव दरस बिन सुख स इ. प्रई । पर जियेंदों मनु बैरी अनमारन ; | तब्रत ब्रदर मैं उसी प्यास् अँछियर , प्रात उत्रि पदम पियायों रूप पार्ने । पायन नपुर मंजु अझै कदि किंकिन की धुनि में मधुरई : साँक्रे अंग जसै सूट पीत और दुलहै इनलाच सहाई है .. झाचे किट बड़े इन चंक्छ एंड हँसो सुख चंद न्हाई । ॐ आए मेरि बुवक कुंडन की नाज़ झूह देव सहाई । । ' ' ' ' ' '