पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/२९

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भूमिका (२) . (द्वितीय संस्करण की भूमिका) ...

इस ग्रंथ के बनाने का भाव हमारे चित्त में कब और कैसे उठा, तथा उसके विषय में अन्य जानने योग्य बातों का उल्लेख हम प्रथम संस्करण की १०४ छकाली .. भूमिका में सविस्तर कर चुके हैं। उन्हें यहाँ पर दोहराने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है और इस संस्करण की भूमिका में हमें विशेष रूप से कुछ कहना भी तादृश अनिवार्य नहीं प्रतीत होता, तथापि ५-७ पृष्ठों में कुछ थोड़ा-सा कथनोपकथन कर देना कदाचित् अनुचित न माना जाय। इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण संवत् १९७० (सन् १९१३) में खंडवा व प्रयाग की "हिंदी-प्रंथ- प्रसारक मंडली" द्वारा प्रयाग के इंडियन-प्रेस में छपवाकर प्रकाशित कराया गया और वह हाथों हाथ बिकने बगा। तथापिग्रंथ भारी होने, तथा कुछ ही समय के पश्चात उक्त मंडली के उत्साही मंत्री श्रीयुत मासिक्यचंद्र जैन की अकाल और शोकजनक मृत्यु हो जाने के कारण उसके प्रचार में बाधाएँ पड़ गई, यहाँ तक कि कभी-कभी उसके नियत मूल्य के और कुछ चालबाज़ पुस्तक-विक्रेताओं ने उसे १०), ११) से २०), २३), तक को बेंचा और भला-चंगा लाभ उठाया । फिर भी अनेक सजनों को ग्रंथ कई साल तक अप्राप्य-सा रहा और इस प्रकार उसके प्रचार में बड़ी अड़चन हो गई, यद्यपि कई विश्वविद्यालयों (यथा कलकत्ता पटना, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली एवं पंजाब.) में वह बी० ए० एवं एम० ए०की परीक्षाओं में पास्व पुस्तक भी समय-समय पर रहा प्रथा अब है । हिंदी विद्वानों तथा जनता ने भी