पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रद ज्यभक अकया. ३४ ( १७८ } लालनदास . के महाशय इलम में संवत् १६४२ के गढ़ में | इन्ही शांत-रस तथा स्फुट बिषय के छंद बनाए । इन चितई सानुप्रास और विशद होती थी । हम इन्हें तोघ कवि की श्रे . उदाहर--- : दालव ऋषि की दलमऊ सुरसरि वीर निवास ; ..' उहाँ दास लालच बसे र अझस की श्रास । ... दीप कैसी जाकी जोति मगर होति । गुलाबसि बदिर में दामिब अलू है ; : : जाफरान फूलन मैं जैसे हेमलता उसै , . • तामैं उग्यो. चंद लेन रूप अजभूदा हैं। खालन जू लालन के रंग की नि:रि इँशी , . सुसँग मजीठ ही के रंगन अमृदा हैं । बकिन देहूदा लखि छादन को खूद ओप , .:. अतर अहूदी अंगना के अंग ऊदा है। . .... ( १७६ } नाभादासजी व प्रिसदासजीं ... : . दाभाडासजी शुकड़े ही प्रसिद्ध भक्क़ और महरमा हो गए हैं। उन्होंने भामलक्ष्मक ग्रंथ में करीब २०० भक्कों के बन किए हैं। बाबू राधाकृष्णदासजी के श्रृंददास की भङ्ग-नामाचल्ली में क्रंमाण सिद्ध किया है कि भक़साल संवत् १६४२ के पीछे और १६० के पहले बनीं ६ भन्मांड में लिखा है कि---- .: विंटलेश नंदन सुझंग. जग कोऊ नहिं तर सामान । .: श्रीवल्लभजू के अंश में - सुन्न गिरिधर आजमान ।। |:: :: तुलसीदासजी के विषय में भक्ल मेले कहती है कि इंचरण रस, मत्त रहत अनिश ब्र' धारी । .