पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विषय ] उत्तरालंकृत करण् । ६८। ३ सभी भाषाओं में धाड़े से प्राचार्यों का होना उपयोग एवं आवष्यक है, पर विपतर क्या प्रायः सभी कविये का विविध विषयी ८ की ओर ध्यान रखना चाहिए । अच्चिाय लैस है। काचेती करने की ते सिमलाते हैं, माना चद् संसार हैं यह कएते हैं कि अमुकामुक चिपयां के चीन में अमुक प्रकार के कथन उपयोगी है और अमुक • प्रकार के अनुपयोगी । ऐसे ग्रन्थों से प्रत्यक्ष प्रकट है कि वह विविध व पालै प्रन्थों के सायक मात्र है, न फि उन के स्थानापन्न । फिर जब अधिकांश कधिगया ऐसे ही सहायक ग्रन्थ लिखने लगे, तब वास्तविक धन्य-लेखक गत से आयें ? इन सहायक ग्रन्थ के अस्तित्व को मुख्य फल विधि विपये पर ग्रन्थ का बनना है, परन्तु यदि घले ग्रन्थ । न । ब' चेर फेवल तयिक ग्रन्थ हो रह जायें, ते। उनका भी ऐना मुणग फल के लिए न होने के बराबर है। स्तम्भे ते छत थभने के लिए होते हैं, सै। यदि कोई व्यक्ति हुन ने बना कर केवळ पना डाले, ती उसका परिधन अवश्यमेव उपहासास्पद इदेगा। इस कारण आचायतों की भारी वृद्धि से दिन्घो को विशेष लाम नही हुँ । 'गार रस की रचना पटुत लेाग की रुचिकर है। है, पतु फिर भी जैसे pगारी कथन सुभ्य समाज में विशेष प्रादुर न पा सकरी, वैसे ही इस प्रकार के ग्रन्थों का हाल है। कविगण पुद्धिपल का पूर्ण प्यय कर के बड़ी वैग्यता के साथ मन-मुग्ध- }कारी रचनाये' वर ६, जे अनुचित एवं अनुपपेगी विप से सम्बन्ध रख्नने पर भी इदयग्राहिमी होती हैं। ऐसा दम में रच-