पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२६८

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इस ] उत्तराबंकृत प्रकरण ।' ६८९ भी इसी का आदर दिया। सूदन, पद्माकर आदि कबिब। ने धर्म से सम्बन्ध न रसने वाली फया-प्रासंगिक रचनाये' फौं । सारांश यह है कि उत्तरालंकृत काल में भाषा भूषणों से लद गई, 'गार-कविता खुश धनी, चाप्यता बढ़ी, फा-प्रासंगिक प्रथा ने धर्म से सम्यन्ध करके चल पाया, साधारण कथासं- गिक ग्रन्थ भी रचे गये और बड़ी वाली ने मद्य में भी जप्त पकड़ी। परमै कवियों का इस समय वाभाप सा रहा, परन्तु उत्कृष्ट कयिये की मात्रा अन्य सर्मी समय से विशेष रद्दी, मापामाधुर्यप के सम्मुम भावसंकुचना , पचं महाराजामों में काव्य-भेन स्थिर रहा। छबीसवाँ अध्याय । दासकाल ( १७९१ से १८६० तक)। ( ७१३ ) भिखारीदइस उपनाम दास । दाल के विषय में ठाकुर शिवसिंह ने लिखा है कि ये हुन्छेलग्य; के रहने चाले थे, परन्तु स्वयं दास ने अन्धेरे में अपने के अरवर देश प्रतापगढ़ का रहने वाला लिम्बा था, सैर हर्ने सन्देह हुआ कि फहो यह अवध का ज़िला प्रतापगढ़ न हो, अतः हमने राजा प्रतापबहादुरसि ६ सौ० आई० ई. की पत्रद्वार इस विषय में अपनी शंका याचा की, तो उन्होंने कृपा कर के दारा ने 'पिपुराण' और' नामप्रकाश' नाम दी ग्रन्थ भी हुमारे पास भेजे और उनके कुटुम्बिों से पूछ फर इनका हाट भैर लिम भैहा।।