पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३७९

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४१५ मिश्नचिनाए । [१६० १२५ ॐ सो भई गोयल फुरंग घार फार व कृरि फदि फेरै कि दंष तक दी। क्षार जरि जग्गून्दै गुग सदरंग है। बैंग फाट्यो दामि तुचा भुजंग चलीं ॥ परी धन्दी तू फी किया नए के धाळे जय हो किरि पु अदली ! झार घुइ दो शराज से पुत्रार कर पुंडरीक म्यौ री कपूर पायी फली । ' (८७ ३) दत्त । देवदप जपनाम दच घ्रा माढि जिले कानपूर के भैयाले 9 और चरसारी में महाराजा मानसिंह के अभिप में इद्दते थे । इनकी कविताकाल संचेत् १८७ के लगभग है, कि भष्ट्रामा खुमानसिंह का ज्ञवक्राळ १८१८ से १८३९, संवत् तक है। इन्हीं के समय में पफ दूसरे दत्त (घद्वादत्त) भी थे जिन्होंने ६/पप्रफाश पर बिहान्लास नामक अन्य (चे थे। स्वदपयार' पक तीसरे 'भा दत्त मिले ६, परन्तु उनका सुमय यात नद्दी छु । सम्मई हैं कि इन्हीं मैंने दरों में से एक ने सरोदय भी रचा है । देषज्ञ फा घना हुमा पिछा नामक अलंकार-भ पंडित - किशोर ने देर ६ । यह अफिरि में मतिरमिशन ललित लाम व घर है और दुत महांसीथ भी हैं। इनकी कविता बड़ी ही नेत्र है। पी। पदुमाकर, ग्पा पैनकी फदिला 7 नई झोंक रहती भी। दत्त की रचना में अलंका की एवं छटा है।