पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३९३

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मित्र-धुधियः । [अ० १८ यद अन्य वाही मांसनीय मार उगका ६ माया वया• नमिपी का नारा उदितनारायमिंद झ ६५ व थत एतश ६ना दिए, नित उद पिपुल धन पाय र मागारगि। के लिए यह या गुदग धर दिया । चुना जाता है कि उन्होंने पदले इन के पास न्दं मदद देने पर पंडित नियत पर पिये में पर फिर अन्य समाप्त होने पर उन्हूँ एक रक्ष मुद्रा पुर सार में दिये। पहले यह प्रन्य कलकत्ते में छपी था र फिर अमेठी के रवि माधवसिद्द जी की इच्छानुसार यद समनऊ में | मुझी मयल विशीर सी० आई० ६० के यन्त्रालय में सवत् १९३० में प्रकाशित छु । अयं इसका तीसरा सस्करण भी निकला है। इन कर्थियों ने अपने ग्रन्थ या समय नहीं दिया है। इमर्ने इस विपय में महाराजा घनारस वे यहां से हाल पूछी थी, सा मणिदेव के पात्र कवि सीतलाप्रसाद जी ने लिपा कि मदरमात सवत् १८८४ में समाप्त हुआ । नुन जाती है कि इस रचना बहुत काल तक हाती रही थी । गेोकुलनाथ का कता-काल अनुमान से लगभग सयन् १८२८ से प्रारम्भ होता है। यहीं समय इस अनुवाद के प्रारम्भ का समझना चादिए । उनके देस से यह भी विदित हुआ कि मणिदे। वहीजन भरतपुर रियासत .जिहानपूर नामक ग्राम के द्ने वाले थे। इनकी मादा दे मरने पर इनके पिता ने द्वितीय विवाह किया। अपनी विमाता के ब्यबहार से रुष्ट होकर ये वनारस चले गये और गेमुलनाथजी

यहाँ रहने लगे। अन्य स्थानों पर भी इनकी कविता था मान,

[ धार इन्हें गद्ध, दुग, मामाद मिळे । अपनी अन्तिम अवा