पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४४०

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मधुसूदनदास ] उत्तराखंत छ । ८१३ मदनदास जी पूर्ण रूप से स्वामी तुलसीदासजी की रीति पर चले ६ । नाय के शील गुण भी उन्होंने गैस्वामीजी के समानी रङ्गने पर पूरा ध्यान रखा है। रामायध फै। एसरी | रामायण बनाने में पूरा श्रम किया गया है। मदनदास जी गोस्वामी जी की भति पूरे भक्त, धै। उन्हें का फै। विस्तारपूर्वक कराने फी अच्छी शक्ति थी। उनकी भपा प्रशंसनीय है। स्वामी जी का अनुकरण देने के कारण इसमें विपत मी भाग का व्यवहार हुआ है। कहीं की नाभीपा के भी शष्प्यु मन्ध में मिलते हैं। | इन महाराज की यायिता में कितने ही महापुरुप के वन हुए ६ मे, इन्ने नफा आद्योपान्त ठीक ठीक निर्वाह कर दिया है। जपेये। और राजाने की बातचीत में भी इन्होंने पिये। फे महत्त्व का सदैव विचार रखा है। जबपिये। मेर पिपरिया का माइत्य, माझा का पद और राज्यवर्धन पख पुर, प्रामादि का स्वरूपदर्शन इत्यादि इनकी कविता में अच्छे पाये जाते हैं। इन्ट र इक म्यान पर गास्वामी जी की शांति वर्णन करने का ध्यान रपया हैं। इन चारिता के कुछ देउन्द उदाहरणस्वरूप नीचे दिये जाते हैं। सम्पत बलु दस सत मुनहु पुने नष तास मिलाय ।। विदित मासे झापाड प्रस्तु पापस सुखद बनाय ! र पक्ष तिचे दैज सुधाई । जात्र मार शुभ मंगलदाई ॥ - पम देन पुनर्वसु रच्छ । प्रा प्रभु जस अरनन इच्छा ।। धी रामानुज फूट मंझारी ! हि कथा र विचारी ॥