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मिश्रबंधु
           पूर्व-नूतन                १४९

धर्म पर पड़ने लगा । दशा यह थी कि यदि एक भाई हिंदू था, तो दूसरा बौद्ध । बौद्धों और हिंदुओं में खाने-पीने, संबंध-विवाहादि में कोई भेद न था, जैसी दशा आजकल भी चीन, जापान, लंका आदि के बौद्धों और ईसाइयों में पाई जाती है । बौद्ध तथा हिंदू एक दूसरे के सिद्धांतों से प्रभावित होने लगे और दोनो के सिद्धांत मिलने लगे। तीसरी शताब्दी संवत् तक भारत मे शक, अमर,गुर्जर, तुर्क यूएची,सीदियन आदि कई जातियाँ बाहर से आकर समाज में मिल गई। पाँचवीं शताब्दी में इसी प्रकार हूण आकर मिल गए । कनिष्क अशोक के समान भारी सम्राट् थे। उनके समय पहली शताब्दी तक हिंदू और बौद्ध इतने मिल चुके थे कि महात्मा बुद्ध में मानुषिक भावों का शिथिलीकरण होकर पूरा देव-भाव जुड़ चुका था;भेद केवल इतना था कि हिंदू लोग देव-समाज बुद्ध का स्थान नीचा मानते थे, और बौद्ध लोग उसे बहुत ऊँचा कहते थे। दोनो के देवताओं को मानते दोनो थे, भेद केवल उनकी श्रानुषंगिक महत्ता का था। इसी बौद्ध-मत को महायान कहते हैं।

बौद्धों तथा उपर्युक्त अन्य जातियों के विचारों द्वारा प्रभावित होकर हमारा धर्म प्राचीन वैदिक मत से बहुत दूर हट गया, यद्यपि इसने वेदों का मौखिक मान कभी नहीं छोड़ा । इसी नव-विकसित मत को पौराणिक कहते हैं। चला तो यह समाज की दशाओं द्वारा विकसित धार्मिक भावों से, किंतु अंत में स्वामी शंकराचार्य तथा रामानुजाचार्य ने इसके अंग-प्रत्यंगों का सामंजस्य मिलाकर इसे दार्शनिक एवं शुद्ध शास्त्रीय रूप दिया । कहने को तो ये लोग बौद्ध-काल के पहलेवाले प्राचीन वेदों तथा शास्त्रों को ही मानते रहे, किंतु इन्होंने अपने धार्मिक विचारों का ऐसा सुंदर तार्किक सामंजस्य निकाला कि नवोदित, तथा नव विचारों द्वारा गृहीत.प्राचीन भाव, एक ही दिखने लगे। इस पौराणिक धर्म को प्राचीन