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मिश्रबंधु
       मिश्रबंधु-विनोद              १५०

प्रथानुयायी पंडित लोग अभी वैदिक धर्म से अभिन्न मानते हैं, तथापि सगुणोपासना,अवतारों का मान,यज्ञों का साधारणतया अभाव,प्रतिमाओं की विशेषता, गंगा-यमुना आदि पर सहती श्रद्धा, मूर्तियों तथा नदियों पर आश्रित तीर्थ-स्थानों आदि के मान, त्रिमूर्ति की दृढ़ स्थापना एवं इंद्रादि के शिथिल प्रभाव में यह पौराणिक मत प्राचीन वैदिक मत से भिन्न है। इस विषय पर हमारे नूतन परिपाटी-कालवाले तथा इनके पहलेवाले लेखकों ने बहुत कुछ नहीं कहा । स्वामी दयानंद सरस्वती ने इन बातों को वेद-समर्थित न कहकर त्याज्य बतलाया, किंतु विशुद्धानंद सरस्वती श्रादि काशी के तथा अन्य भारतीय प्राचीन प्रथानुयायी विद्वान् इस मत से विरोध ही करते रहे, और उपर्युक्र बातों को वेदानुकूल बतलाते रहे। डॉक्टर सर रामकृष्ण भांडारकर ने पहलेपहल हिंदू-धर्म के सिद्धांतों का ऐतिहासिक वर्णन करके पृथक्-पृथक् विचारों के उदय का काल निर्णीत किया । यह निर्णय प्राचीन हिंदू-ग्रंथों के आधार पर ही किया गया । हमने भी इस विषय पर पहले से विचार करके हिंदू-धर्म के विकास पर सुमनोंजलि तथा भारतीय इतिहास में निबंध लिखे थे। पीछे से भांडारकर महाशय के ग्रंथ तथा अन्य पुस्तके पढ़ने का जब अवसर मिला, तब अपने प्राचीन विचारों में जो नए भाव जुड़े, उनका भी पृथक् कथन हमने सुमनोंजलि के ही एक निबंध में कर दिया है। इस प्रकार यह पौराणिक मत के उदय का इतिहास बड़ा ही शिक्षा-प्रद एवं रोचक है। पौराणिक मत की क्रमोन्नति का वर्णन हिंदी में हमने अब तक किसी अन्य ग्रंथ में नहीं देखा है। डॉक्टर का महाशय तथा बाबू भगवानदास के लेख हिंदी में बहुत थोड़े हैं और अँगरेज़ी में अधिक, किंतु ये महाशय हमारे ही हैं, सो इनके अँगरेज़ी ग्रंथों से भी हमें हिंदी की अंग-पुष्टि समझ पड़ती है । ईश्ववरी तेवारी (सं १९४८) ने पौराणिक ग्रंथों का अनु-