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मिश्रबंधु

१६८ मिश्रबंधु-विनोद यहाँ पद्य-रचना तो प्राचीन काल से होती आई थी, किंतु गद्य का साहित्य में पहलेपहल प्रयोग ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने किया । गद्योन्नति का कुछ कथन हमने प्रथम भाग के संक्षिप्त इतिहास प्रकरण में किया है। उन बातों को यहाँ दोहराना अनावश्यक है। उत्तरालंकृत काल में नज़ीर अकबराबादी, सदासुखलाल, इंशाअल्ला, लल्लूजी लाल और सदल मिश्र के समय से गम में खड़ी बोली का प्रचार बढ़ा। नज़ीर मुसलमान होकर भी कृष्ण-भक्त थे । सदासुखलाल ने बहुत करके भाव-व्यंजना में कुछ गंभीरता-युक्त परिष्कृत रूप में शुद्ध खड़ी नोली लिखी, किंतु उसमें पंडिताऊपन का कुछ पुट था। इंशाअल्ला ने प्रायः उसी समय उर्दू के समान विशुद्ध हिंदी लिखी, जिसमें भापा- संबंधी अलंकारों का भी समावेश था। इनमें शब्दों के अतिरिक्त उर्दू-वाक्य-योजना भी थी। इनकी भावभगी एवं शैली चमस्कृत अथच नवीनता मंडित थी, किंतु इनके लेखों में भारतीयता कम थी। इनकी चंटक-मटक तथा हँसी-पूर्ण प्रणाली गंभीर विषयों के अयोग्य थी। लल्लूजी लाल ब्रजभाषा-मिश्रित खड़ी बोली लिखते थे, और सदल मिश्र पूर्वी पुट लिए हुए शुद्धतर खड़ी बोली। लल्लूजी लाल ने अपनी मधुर, किंतु कुछ शिथिल भापा से उर्दू पन बचाया । सदल मिश्र- वाली भाव-प्रकाशन की पद्धति स्तुत्य थी, किंतु फिर भी इस काल की भाषा अध्यवस्थित, अनियत्रित, प्रांतिकता-युक्त अयच भाव-प्रकाशन में निबल थी। उसमें अनेकरूपता पाई जाती है । इनके पीछे ईसाई लेखकों ने विशुद्ध खड़ी बोली का प्रयोग किया। इनके शब्दों तथा ढंगों में उर्दू का बहिष्कार तथा हिंदीपन का आदर था। इन लोगों ने ग्रामीण शब्द तक लिखकर उर्दू पन बचाया। अनंतर राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मणसिंह, स्वामी दयानंद और भारतेंदु के समय आते हैं। इनमें से शिवप्रसाद ने खिचड़ी (उर्दू-मिश्रित) हिंदी चलानी चाही, किंतु शेष लेखकों के उद्योग से शुद्ध हिंदी ही