पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ४.pdf/१७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१७४
१७४
मिश्रबंधु

पूर्व नूतन लोक व्यवहृत हुई। भारतेंदु साधारण संस्कृत-मिश्रित शुद्ध सड़ी बोली लिखते थे, जिसमें संस्कृतपन या उर्दूपन की भरमार नहीं होती थी। भारतेंदु-काल में भाषा को शक्ति और दीप्ति प्राप्त हुई, तथा गद्य ने उत्कृष्ट रूप धारण किया । उनके पीछे प्रतापनारायण मिश्र की भाषा चुटकुलेबाज़ी लिए हुए खूब उछलती-कूदती चलती थी, जिसमें आरोचन की मात्रा अच्छी थी। भारतेंदु-काल के उपर्युक्त कवियों और लेखकों ने प्रायः उन्हीं की-सी हिंदी का व्यवहार किया, जिसमें समय के साथ कुछ संस्कृत- पन बढ़ता गया। महावीरप्रसाद द्विवेदी सबल लेखक है। श्रीधर पाठक बहुत करके पद्य-लेखक थे। पुरोहित गोपीनाथ भी उच्च भाषा का व्यवहार करते थे। पूर्व नूतन काल में अयोध्यासिंह उपाध्याय उत्कृष्ट गव-लेखक है। अन्य अनेकानेक श्रेष्ठ गद्य-लेखकों के नाम अन्य संबंधों में ऊपर पा चुके हैं, जिनमें भुवनेश्वर मिश्र (१९४६), रामनारायण मिश्र (१९४९), जैनेंद्र किशोर (१९१०), गदाधरसिंह (१९५१), गंगाप्रसाद अग्निहोत्री ( १९५२) और नरदेव शास्त्री (१९६०) के भी नाम विशेपतया गिनाए जा सकते हैं। यग-साहित्य के विषय में अंबिकादत्त व्यास तथा श्यामसुंदरदास ने गद्य-काव्य- मीमांसा अथच साहित्यालोचन में अच्छे प्रकार से प्रकाश डाला है। कामताप्रसाद गुरु (१९५०) ने व्याकरण पर अच्छा परिश्रम किया। थापने अंगरेजी के ढचर पर हिंदी-व्याकरण को चलाया है, जिसमें कई स्थानों पर संस्कृत के उन नियमों का भी वर्णन कर दिया है, जो हिंदी से संबद्ध हो गए हैं। इनके व्याकरण में भाषा के गूढ़ीकरण की ओर हठ नहीं है, किंतु संस्कृतपन की ओर रुझान है, तथा अनावश्यक विस्तार भी उसमें पाया जाता है। आपने भाषा-भास्कर बहुत कुछ लाभ उठाया है , तो भी आपका श्रम श्लाघ्य है। छायावादी कविता का डोर अभी तक नहीं उठा है। वचनेश मिश्र