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मिश्रबंधु

सं० १९६४ उत्तर नूतन विपत्ति-भंजन, (१५) कल्प-लतिका, (१६) हनुमद्यश- पताका, (१७) महासंकट-मोचन, (१०) तुलसी-चालीसा, (१६) सूर्य-चालीसा, (२०) भव-सागर-नौका, (२१) सद्गुरु- चालीसा,(२२) प्रेम-विवर्धिनी, (२३) आनंद-गुटिका, (२४) गीत-मुक्तावली, (२५) सजन-चरित्र-माला, (२६) विध्याचल- संहिता, (२७) मंगल-मयूख, (२८) रामस्तव-तिलक, ( २६.) प्रेम- कुसुमांजलि, (३०) विनय-पुष्पांजलि, (३३) पत्र-विन्यास । विवरण:- 1. आप श्रीवास्तव कायस्थ मुंशी शिवप्रसादलालजी के पुत्र तथा अपने प्रांत के एक ज़मीदार हैं। श्रापकी रचनाएँ विशेष- तया भक्ति मार्ग से संबंध रखती हैं। आपके उक्त ग्रंथों में से केवल दो ही ग्रंथ-प्रेम-विवर्द्धिनी तथा नाम-यश-दर्पण- मुद्रित हुए हैं। प्रेम- विवर्द्धिनी इनकी सबसे पहली रचना है । आयुर्वेद, ज्योतिप, तंत्र-जाल इत्यादि विषयों के भी श्राप ज्ञाता हैं। उदाहरण--- अब उर धरि पद राम सिया को, धृत बानी जन हृदय दिया को गावत विशद चरित तिन केरो, जिन करुणा करि मानस प्रेरो । जो परिपूरण तम अविनाशी, अगुण ब्रह्म सात-निवासी; मानस अवधि प्रकटि जलजाता, भयउ मल-अलिगण सुखदाता। सोइ भ्रमर गो-तोक सरोजा, प्रकट होइ छवि कोटि मनोना; द्वापर कौन चरित जग पावन, सोइ भनत कछु परम सुहावन । कृतयुग नाना ध्यान समाधी, वेता विविध यज्ञ प्राराधी द्वापर करि परिचर्या पी की, जो नरवर पावहिं गति नीकी । सो वर फल सजन कलि पावहि, हरि-यश गहि सदग्रंथन गावहिं ; बिनु हरि-यश विशेष कलि माही, तरन उपाय आन कछु नाहीं । राम-कथा दुर्गा यथा, असुर महाकलिकाल ; पाठक जन वर विवुधगण टारहिं विपति विशाल । (कृष्णायन से) . .