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मिश्रबंधु

सं० १९८० उत्तर नूतन १२० 3 तेरे अति गंभीर नाद के भीतर हास्य छिपा रहता। जब तू मानव-जीवन को है अति क्षण-भंगुर दिखलाता। फिर जब कर प्राकृति तू भीपण अपना गौरव दिखलाता

होगा फिर विनयी-सा नीचा सपने में भी क्या श्राता। तेरे वक्षस्थल पर नदियाँ जब श्रा करके गिरती हैं कृष्ण-प्रेम में पगी गोपियों की-सी तो वे लगती है। उन्हें मिलाकर निज शरीर में जग को तू है सिखलाता, अंत काल यह जगत् समूचा ब्रह्म-देह में मिल जाता। नाम---(४३९४ ) गंगाप्रसाद मेहता एम० ए०। जन्म-काल-लगभग सं० १९५५ रचनाकाल-सं० १९८० | ग्रंथ-चंद्रगुप्त विक्रमादित्य । विवरण--उपयुक्त ग्रंथ बहुत ही गवेषणा-पूर्ण उच्च कोटि का है। ऐसे ग्रंथ-रत्नों की हिंदी को आवश्यकता है। नाम-(४३१५) दोवारीलाल साहित्यरत्न, न्यायतीर्थ, जव्हेरीबारा, इंदौर। जन्म-काल-सं० १६१६ । कविता-काल-लगभग सं० १९८०1 ग्रंथ-(१) भारतोद्धार (नाटक), (२) क्षत्रिय-रत्न (महाकाव्य), (३) जैन-दर्शन, (४). सम्यक्त्व-शतक, (१) स्फुट 4. कहानियाँ। विवरण---यह श्रीयुत नन्हूलालजी के पुत्र हैं। उदाहरण-

जब से संध्या हुई, तभी से होने लगा अंग-भंगार;

छाया मतवालापन मुझमें भूल गई . सारा संसार । . ।