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मिश्रबंधु

उत्तर नूतन 'मिअवधु' हो मिश्रित कर त्यो, कान्यकुब्ज नवयुवकाधार । सुमन-आकांक्षा नहीं चाहता मैं बन को अपनी सुबाल से भर हूँ. किंतु मिटाकर अपने को, श्रृंगार किसी नहीं चाहता कामिनियों के पर नहीं चाहता मैं डाली पर फूल फूलकर फूलू। - नहीं चाहता प्रभु - पूजा में मुझे प्रणय-प्रणयिनी भाव मुझको उपहार अपनार्वे: सरा बना। जा मैं 'सुहाग की रात' साल में चाहता मन बैरी या काम-बाण की नोक न मैं बन जा निश्त-कुंज में खिलने दो, बस हिला करें पंखुड़ियाँ