पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१००

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९२ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ तसादसत्प्रलपितमेवैतदनेन अतः इस वचनके द्वारा यह ज्ञानकर्मसमुच्चयप्रतिपादनम् ज्ञान और कर्मके समुञ्चयका “अन्या वाचो विमुञ्चय" प्रतिपादन मिथ्या प्रलाप ही है । यही बात "अन्या वाचो विमुञ्चथ" (मु० उ०२।२१५) “संन्यास- "संन्यासयोगात्" इत्यादि श्रुतियोंसे योगात्" (मु० उ० ३।२।६) भी सिद्ध होती है । अतएव इस इत्यादिश्रुतिभ्यश्च । तस्मादय- जगह उसीको ‘क्रियावान्' कहा है मेवेह क्रियावान्योज्ञानध्यानादि- जो ज्ञान-ध्यानादि क्रियाओंवाला क्रियावानसंभिन्नार्यमर्यादः और आर्यमर्यादाका भङ्ग न करने- संन्यासी । य एवंलक्षणो नाति- वाला संन्यासी है । जो ऐसे लक्षणोंवाला अनतिवादी, आत्म- वाद्यात्मक्रीड आत्मरतिः क्रिया- क्रीड, आत्मरति और क्रियावान् वान्ब्रह्मनिष्ठः स ब्रह्मविदां सर्वेषां ब्रह्मनिष्ठ है वही समस्त ब्रह्मवेत्ताओं- वरिष्ठः प्रधानः ॥४॥ में वरिष्ठ यानी प्रधान है ।। ४ ।। आत्मदर्शनके साधन अधुना सत्यादीनि भिक्षोः अब भिक्षुके लिये सम्यग्ज्ञानके सम्यग्ज्ञानसहकारीणि साधनानि सहकारी सत्य आदि निवृत्तिप्रधान विधीयन्ते निवृत्तिप्रधानानि- साधनोंका विधान किया जाता है- सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् । अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥ ५ ॥