पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खण्ड १] शाकरभाष्यार्थ साधननिरपेक्षा बाह्यविषयप्रीति- रति साधनकी अपेक्षा न करके बाह्य विषयकी प्रीतिमात्रको कहते मात्रमिति विशेषः । तथा क्रिया-हैं-यही इन दोनोंमें विशेषता . ( अन्तर ) है । तथा क्रियावान् वाज्ञानध्यानवैराग्यादिक्रिया अर्थात् जिसकी ज्ञान, ध्यान एवं वैराग्यादि क्रियाएँ हों उसे क्रियावान् यस्य सोऽयं क्रियावान् । समास- कहते हैं । किन्तु [ 'आत्मरति- क्रियावान्' ऐसा] समासयुक्त पाठ पाठ आत्मरतिरेव क्रियास्य विद्यत होनेपर 'आत्मरति हो जिसकी क्रिया है' [ ऐसा अर्थ होनेसे ] बहुव्रीहि इति बहुव्रीहिमतुबर्थयोरन्यतरो- समास और 'मतुप्' प्रत्ययका अर्थ -इन दोनों से एक (मतुप ऽतिरिच्यते । प्रत्ययका अर्थ ) अधिक हो जाता है। केचित्त्वग्निहोत्रादिकमब्रह्म कोई-कोई (समुच्चयवादी) तो [आत्मरति और क्रियावान् इन विद्ययोः समुच्चयार्थ- दोनों विशेषणोंको ] अग्निहोत्रादि समुच्चयवादिमत- मिच्छन्ति । तच्चैष कर्म और ब्रह्मविद्याके समुच्चयके खण्डनम् ब्रह्मविदां वरिष्ठ लिये समझते हैं । किन्तु उनका इत्यनेन मुख्यार्थवचनेन विरु- यह अभिप्राय 'ब्रह्मविदां वरिष्ठः' इस मुख्यार्थवाची कथनसे विरुद्ध है। ध्यते । न हि बाह्यक्रियावानात्म- बाह्यक्रियावान् पुरुष आत्मक्रीड और आत्मरति हो ही नहीं सकता। क्रीड आत्मरतिश्च भवितुं शक्तः, कोई भी पुरुष बाह्यक्रियासे निवृत्त कश्चिद्वाह्यक्रियाविनिवृत्तो ह्यात्म- होकर ही आत्मक्रीड हो सकता है, क्योंकि बाह्यक्रिया और क्रीडो भवति बाह्यक्रियात्मक्रीड- आत्मक्रीडाका परस्पर विरोध है । अन्धकार और प्रकाशकी योर्विरोधात् । न हि तम प्रकाश- एक स्थानपर एक ही समय स्थिति योर्युगपदेकत्र स्थितिः संभवति । हो ही नहीं सकती।