पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१०५

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ बृहन्महच्च तत्प्रकृतं ब्रह्म। सत्यादि जिसकी प्राप्तिके साधन सत्यादिसाधनं सर्वतो व्याप्त- हैं वह प्रकृत ब्रह्म सब ओर व्याप्त होनेके कारण बृहत्-महान् है । त्वात् । दिव्यं स्वयंप्रभमनिन्द्रिय- वह दिव्य-स्वयंप्रभ यानी इन्द्रियों- गोचरमत एव न चिन्तयितुं का अविषय है, इसलिये जिसका शक्यतेऽस्य रूपमित्यचिन्त्य- रूप चिन्तन न किया जा सके ऐसा अचिन्त्यरूप है । रूपम् । सूक्ष्मादाकाशादरपि आकाशादि मूक्ष्म पदार्थोसे भी तत्सूक्ष्मतरम् , निरतिशयं हि मूक्ष्मतर है । सबका कारण होनेसे सौक्ष्म्यमस्य सर्वकारणत्वाद्, इसकी मूक्ष्मता सबसे अधिक है। इस प्रकार वह मूर्य-चन्द्र आदि विभातिविविधमादित्यचन्द्राद्या- रूपोंसे अनेक प्रकार भासित यानी कारेण भाति दीप्यते । दीप्त हो रहा है। वह किं च दूराद्विप्रकृष्टदेशान्सुदूरे इसके सिवा वह ब्रह्म अज्ञानियोके विप्रकृष्टतरे देशे वर्ततेऽविदुषा- लिये अत्यन्त अगम्य होनेके कारण दृर यानी दूरस्थ देशसे भी अधिक दूर- मत्यन्तागम्यत्वात्तद्ब्रह्म । इह अत्यन्त दूरस्थ देशमें वर्तमान है; तथा विद्वानोंका आत्मा होनेके देहेन्तिके समीपे च विदुषा- कारण इस शरीर में अत्यन्त समीप मात्मत्वात् । सर्वान्तरत्वाच्चा- भी है । यह श्रुतिके कथनानुसार सबके भीतर रहनेवाला होनेसे काशस्याप्यन्तरश्रुतेः । इह आकाशके भीतर भी स्थित है। यह पश्यत्सु चेतनावत्स्वित्येतन्निहितं इस लोकमें 'पश्यत्सु' अर्थात् स्थितं दर्शनादिक्रियावत्वेन चेतनावान् प्राणियोंमें योगियोंद्वारा दर्शनादिक्रियावत्त्वरूपसे स्थित देखा योगिभिलक्ष्यमाणम् । क्क ? गुहाया जाता है । कहाँ देखा जाता है ? ७