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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/११०

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१०२ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ वह विशुद्धचित्त आत्मवेत्ता मनसे जिस-जिस लोककी भावना करता है और जिन-जिन भोगोंको चाहता है वह उसी-उसी लोक और उन्हीं-उन्हीं भोगोंको प्राप्त कर लेता है। इसलिये ऐश्वर्यकी इच्छा करनेवाला पुरुष आत्मज्ञानीकी पूजा करे ॥१०॥ यं यं लोकं पित्रादिलक्षणं विशुद्धसत्त्व-जिसके क्लेश* क्षीण हो गये हैं वह निर्मल- मनसा संविभाति संकल्पयति चित्त आत्मवेत्ता जिस पितृलोक मामन्यस्मै वा भवेदिति विशुद्ध- आदि लोककी मनसे इच्छा करता सत्वः क्षीणक्लेश आत्मविनिर्म- है अर्थात् ऐसा सङ्कल्प करता है कि मुझे या किसी अन्यको अमुक लान्तःकरणः कामयते यांश्च लोक प्राप्त हो अथवा वह जिन कामान्प्रार्थयते भोगांस्तं तं लोकं , कामना यानी भोगोंकी अभिलाषा जयते प्रामोति तांश्च कामान्सं- करता है उसी-उसी लोक तथा अपने सङ्कल्प किये हुए उन्हीं-उन्हो कल्पितान्भोगान् । तस्माद्विदुषः भोगोंको वह प्राप्त कर लेता है । सत्यसंकल्पत्वादात्मज्ञमात्मज्ञा- अतः ऐश्वर्यकी इच्छा करनेवाला नेन विशुद्धान्तःकरणं ह्यर्चयेन पुरुप उस विशुद्धचित्त आत्म- ज्ञानीका पाद-प्रक्षालन, शुश्रूषा एवं पूजयेत्पादप्रक्षालनशुश्रूषानम- नमस्कारादिद्वारा पूजन करे, क्योंकि स्कारादिभिर्भूतिकामो विभूति- लिये ( सत्यसङ्कल्प होनेके कारण ) विद्वान् सत्यसङ्कल्प होता है । इस- मिच्छुः । ततः पूजाह एवासी ।१०। वह पूजनीय ही है ॥ १० ॥ इत्यथर्ववेदीयमुण्डकोपनिषद्भाष्ये तृतीयमुण्डके प्रथमः खण्डः ॥१॥

  • क्लेश मनोविकारोको कहा है । वे पाँच है; यथा--

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः । (योग० २ । ३) १ अपिद्या, २ अस्मिता, ३ राग, ४ द्वेष और ५ अभिनिवेश-ये क्लेश हैं।