पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१०९

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ १०१ कीदृशेन चेतसा वेदितव्य वह किस प्रकारके चित्त ( ज्ञान ) से ज्ञातव्य है ? इसपर इत्याह-प्राणैः सहन्द्रियश्चित्तं कहते हैं-दृध जिस प्रकार घृतसे मर्वमन्तःकरणं प्रजानामोतं व्याप्तं और काष्ट जिस प्रकार अग्निसे व्याप्त है उसी प्रकार जिससे प्राण यन क्षीरमिव स्नेहन काष्ठमिवा- यानी इन्द्रियोंके सहित प्रजाके समस्त चित्त-अन्तःकरण व्याप्त ग्निना । सर्व हि प्रजानामन्तः- है,क्योंकि लोको प्रजाके सभी अन्तः- करणं चतनावत्प्रसिद्धं लोके । करण चेतनायुक्त प्रसिद्ध है और जिस चित्तके शुद्ध यानी क्लेशादि मलसे यस्मिंश्च चित्ते क्लेशादिमलवियुक्ते वियुक्त होनेपर यह पूर्वोक्त आत्मा अपने विशेषरूपसे प्रकट होता है शुद्धे विभवत्येप उक्त आत्मा अर्थात् अपनेको प्रकाशित कर विशेषण म्धनात्मना विभवत्या- देता है [ उस विशुद्ध और विभु विज्ञानसे ही उस त्मानं प्रकाशयतीत्यर्थः ॥९॥ अनुभव किया जा सकता है ] ॥९॥ आत्मतत्त्वका आत्मज्ञका वैभव और उसकी पूजाका विधान य एवमुक्तलक्षणं सर्वात्मान इस प्रकार जो उपर्युक्त सर्वात्मा- को आत्मस्वरूपसे जानता है उसका मात्मत्वन प्रतिपन्नस्तस्य मर्वात्म- सर्वात्मा होनेसे ही सर्वप्राप्तिरूप त्वादेव मर्वावाप्तिलक्षणं फलमाह- फल बतलाते हैं- यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान् । तं तं लोकं जयते तांश्च कामां- स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः ॥१०॥