पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/११५

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ १०७ केन तर्हि लभ्य इत्यु- तो फिर वह किस उपायसे च्यते-यमेव परमात्मानमेवैप प्राप्त हो सकता है ? इसपर कहते हैं--जिस परमात्माको यह विद्वान् विद्वान्वृणुते प्राप्तुमिच्छति तेन । वरण करता अर्थात् प्राप्त करनेकी इच्छा करता है उस वरण करनेके वरणेनैप परमात्मा लभ्यो नान्येन द्वारा ही यह परमात्मा प्राप्त होने साधनान्तरेण । नित्यलब्ध- योग्य है; नित्यप्राप्तस्वरूप होनेके कारण किसी अन्य साधनसे प्राप्त स्वभावत्वात् । नहीं हो सकता। कीदृशोऽसो विदुष आत्म विद्वान्को होनेवाला यह आत्म- लाभ कैसा होता है-इसपर कहते लाभ इत्युच्यते । तस्यैव आत्मा- हैं-यह आत्मा उसके प्रति अपने अविद्याच्छन्न परस्वरूपको यानी विद्यासञ्छन्नां स्वां पगं तनुं स्वात्मतत्त्वको प्रकाशित कर देता स्वात्मतत्त्वं स्वरूपं विवृणुतं । है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रकाशमें घटादिकी अभिव्यक्ति होती प्रकाशयति प्रकाश इव घटादि- है उसी प्रकार विद्याकी प्राप्ति होने- विद्यायांमत्यामाविर्भवतीत्यर्थः । पर आत्माका आविर्भाव हो जाता है। अतः तात्पर्य यह है कि अन्य तस्मादन्यत्यागेनात्मलाभप्रार्थ- कामनाओंके त्यागद्वारा आत्मप्रार्थना नैवात्मलाभसाधनमित्यर्थः॥३॥ ही आत्मलाभका साधन है ॥ ३ ॥ आत्मदर्शनके अन्य साधन आत्मप्रार्थनासहायभूतान्ये लिङ्गयुक्त अर्थात् संन्यासके तानि च साधनानि बलाप्रमाद- सहित बल, अप्रमाद और तप- तपांसि लिङ्गयुक्तानि संन्यास- ये सब साधन आत्मप्रार्थनाके सहितानि । यस्मात्- । सहायक हैं। क्योंकि-