११४ मुण्डकोपनिषद् [ मुण्डक ३ यानि च मुमुक्षुणा कृतानि तथा मुमुक्षुके किये हुए अप्रवृत्तफल कर्म-क्योंकि जो कर्म कर्माण्यप्रवृत्तफलानि प्रवृत्तफला- फलोन्मुख हो जाते हैं वे उपभोगसे नामुपभोगेनैव क्षीयमाणत्वाद्वि- ही क्षीण होते हैं और विज्ञानमय आत्मा, जो अविद्याजनित बुद्धि ज्ञानमयश्चात्माविद्याकृतबुद्धथा- आदि उपाधिको आत्मभावसे मानकर धुपाधिमात्मत्वेन मत्वा जलादिषु जलादिमें सूर्यादिके प्रतिबिम्बके समान यहाँ देहभेदोंमें प्रविष्ट हो सूर्यादिप्रतिबिम्बवदिह प्रविष्टो रहा है, उस विज्ञानमय आत्माके सहित [ परब्रह्ममें लीन हो जाते देहभेदेषु, कर्मणां तत्फलार्थत्वात्, हैं, क्योकि कर्म उस विज्ञानमय सह तेनैव विज्ञानमयेनात्मना, आत्माको ही फल देनेवाले है । अतः विज्ञानमयका अर्थ विज्ञानप्राय अतो विज्ञानमयो विज्ञानप्रायः; है । ऐसे वे [ सञ्चितादि ] त एते कर्माणि विज्ञानमयश्च कर्म और विज्ञानमय आत्मा सभी, आत्मोपाध्यपनये सति परेऽव्यये- उपाधिके निवृत्त हो जानेपर आकाशके समान, पर, अव्यय, ऽनन्तेऽक्षये ब्रह्मण्याकाशकल्पेऽ- अनन्त, अक्षय, अज, अजर, अमृत, जेजरेऽमृतेऽभयेऽपूर्वेऽनपरेऽनन्त- अभय, अपूर्व, अनन्य, अनन्तर, रेऽवाद्येऽद्वये शिवे शान्ते सर्व अबाह्य, अद्वय, शिव और शान्त ब्रह्ममें एकरूप हो जाते हैं- एकीभवन्त्यविशेषतां गच्छन्ति अविशेषता अर्थात् एकताको प्राप्त हो जाते हैं, जिस प्रकार कि एकत्वमापद्यन्ते जलाद्याधारा- जल आदि आधारके हटा लिये पनय इव सूर्यादिप्रतिविम्बाः जानेपर सूर्य आदिके प्रतिबिम्ब सूर्यमें तथा घटादिके निवृत्त होनेपर सूर्ये घटाद्यपनय इवाकाशे घटा- घटाकाशादि महाकाशमें मिल द्याकाशाः ॥७॥ जाते हैं ।। ७ ।।
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