पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१२१

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ ११३ भूतम् ॥६॥ संसारबन्धापनयनमेव मोक्षम् | बन्धनकी निवृत्तिरूप मोक्षकी ही इच्छन्ति ब्रह्मविदो न तु कार्य- इच्छा करते हैं, किसी कार्यभूत पदार्थकी नही ॥६॥ मोक्षका स्वरूप किं च मोक्षकाल- तथा मोक्षकालमें- गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु । कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्व एकीभवन्ति ॥७॥ [ प्राणादि ] पन्द्रह कलाएँ ( देहारम्भक तत्त्व ) अपने आश्रयोंमें स्थित हो जाती हैं, [ चक्षु आदि इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ] समस्त देवगण अपने प्रतिदेवता [ आदित्यादि ] में लीन हो जाते हैं तथा उसके { सञ्चितादि ] कर्म और विज्ञानमय आत्मा आदि सब-के-सब पर अव्यय देवमें एकीभावको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ७ ॥ या देहारम्भिकाः कलाः जो देहकी आरम्भ करनेवाली प्राणायास्ताः स्वां स्वां प्रतिष्ठां प्राणादि कलाएँ हैं वे अपनी प्रतिष्ठा- | को पहुँचती अर्थात् अपने-अपने गताः स्वं स्खं कारणं गता कारणको प्राप्त हो जाती हैं। इस भवन्तीत्यर्थः । प्रतिष्ठा इति मन्त्रमें ] 'प्रतिष्ठाः' यह द्वितीया द्वितीयाबहुवचनम् । पञ्चदश विभक्तिका बहुवचन है । पन्द्रह पञ्चदशमंख्याका या अन्त्यप्रश्न- . प्रसिद्ध कलाएँ जो [ प्रश्नोपनिषद्- परिपठिनाः प्रसिद्धा देवाश्च देहा- के ] अन्तिम ( पष्ठ ) प्रश्नमें पढ़ी गयी हैं तथा देहके आश्रित चक्षु आदि श्रयाश्चक्षुरादिकरणस्थाः सर्वे इन्द्रियोंमें स्थित समस्त देवता अपने प्रतिदेवतास्वादित्यादिषु गता ' प्रतिदेवता आदित्यादिमें लीन हो भवन्तीत्यर्थः। जाते हैं-ऐसा इसका तात्पर्य है। ८