पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१२७

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ उपसंहार तदेतत्सत्यमृषिरङ्गिराः पुरोवाच नैतदचीर्णव्रतो- ऽधीते । नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥११॥ उस इस सत्यका पूर्वकालमें अङ्गिरा ऋपिने [ शौनकजीको उपदेश किया था। जिसने शिरोव्रतका अनुष्टान नहीं किया वह इसका अध्ययन नहीं कर सकता । परमर्पियोंको नमस्कार है, परमर्षियोंको नमस्कार है ॥ ११ ॥ नदतदक्षरं पुरुषं मत्यमृषि उस इस अक्षर पुरुष सत्यको अंगिरा नामक ऋपिने पूर्वकालमें रङ्गिग नाम पुरा पूर्व शौनकाय अपने समीप विधिपूर्वक आये हुए प्रश्नकर्ता शौनकजीसे कहा था । विधिवदुपसन्नाय पृष्टवत उवाच। उनके समान अन्य किसी गुरुको भी उसी प्रकार अपने समीप विधि- तद्वदन्योऽपि तथैव श्रेयोऽथिने पूर्वक आये हुए. कल्याणकामी मुमुक्षु पुरुषको उसके मोक्षके लिये मुमुक्षव मोक्षार्थ विधिवदुपसन्नाय इसका उपदेश करना चाहिये- यह इसका तात्पर्य है। इस ग्रन्थरूप यादित्यर्थः । नतद्ग्रन्थरूपम् उपदेशका अचीर्णव्रत पुरुष- जिसने कि शिरोवतका आचरण न अचीर्णव्रतोऽचरितव्रतोऽप्यधीत किया हो-अध्ययन नहीं कर सकता, क्योंकि जिसने उस व्रतका न पठति । चीर्णव्रतस्य हि विद्या आचरण किया होता है उसीको विद्या संस्कारसम्पन्न होकर फलवती फलाय संस्कृता भवतीति । होती है।